भक्ति/प्रेरक प्रसंग
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आप सभी संभवतया जानते ही होंगे कि अष्टछाप के प्रमुख कवि सूरदासजी नेत्रहीन (दृष्टि से दिव्यांग) थे परन्तु प्रतिदिन मन की दिव्य दृष्टि से प्रभु के दर्शन कर अपने कीर्तनों में प्रभु के श्रृंगार का वर्णन करते थे और इसे प्रभु की कृपा कहते थे.

एक बार श्री गुसांईजी स्वयं नाथद्वारा पधारे अतः सूरदासजी ने भी नाथद्वारा जाने का विचार किया. तब श्री गिरधरजी आदि बालकों ने उन्हें दो दिन और रुककर श्री नवनीतप्रियाजी को कीर्तन सुनाने को कहा अतः सूरदासजी गोकुल में ही रुक गये.

श्री गिरधरजी से तीनों बालकों (श्री गोविन्दरायजी, श्री बालकृष्णजी और श्री गोकुलनाथजी) ने संशयवश कहा कि हम श्री नवनीतप्रियाजी को जो श्रृंगार धराते हैं, सूरदास जी वैसे ही वस्त्र आभूषणों का वर्णन करते हैं.
आज कुछ ऐसा अद्भुत अनोखा श्रृंगार करें कि सूरदासजी पहचान ही नहीं पायें. तब श्री गिरधरजी ने कहा –“सूरदासजी भगवदीय है और इनके हृदय में स्वरूपानंद का अनुभव है. तुम जो भी श्रृंगार करोगे वो उसी भाव का वर्णन अपने पदों में करेंगे अतः भगवदीय की परीक्षा नहीं करनी चाहिए.”

तब तीनों बालकों ने कहा –“फिर भी हमारा मन है अतः हम अपना संशय दूर करने के लिए कल ठाकुरजी को अद्भुत श्रृंगार धरायेंगे.”

अगले दिन प्रातः तीनों बालक श्री नवनीतप्रियाजी के मंदिर में पधारे और सेवा में नहाये, श्री ठाकुरजी को जगाकर भोग धरे. मंगलभोग सरे उपरांत ठाकुरजी को नहला कर श्रृंगार धराने लगे.
ऊष्णकाल के दिन थे और कुछ अलग भी करना था अतः ठाकुरजी को वस्त्र ही नहीं धराये.
केवल मोती की दो लड़ श्रीमस्तक पर, मोती के बाजूबंद, कटि किंकिणी नुपूर, हार आदि सभी मोती के, तिलक, नकवेसर, कर्णफूल ही धराये.

सूरदासजी जगमोहन में बैठे थे और उनके हृदय में यह अनुभव हुआ तब उन्होंने विचार किया कि आज तो श्री नवनीतप्रियाजी ने अद्भुत श्रृंगार धराया है जो कि कभी नहीं सुना, नहीं देखा.
केवल मोती ही धराये हैं और वस्त्र तो है ही नहीं. मुझे भी इस अद्भुत श्रृंगार के लिए कुछ अद्भुत कीर्तन गाना चाहिए. जब श्रृंगार दर्शन खुले और सूरदासजी को कीर्तन हेतु बुलाया गया तो उन्होंने राग-बिलावल में यह सुन्दर कीर्तन गाया.

देखे री हरि नंगमनंगा l
जलसुत भूषन अंग विराजत बसन हीन छबि उठि तरंगा ll 1 ll
अंग अंग प्रति अमित माधुरी निरखि लज्जित रति कोटि अनंगा l
किलकत दधिसुत मुख लेपन करि ‘सूर’ हसत ब्रज युवतिन संगा ll 2 ll

यह सुनकर श्री गिरधरजी सहित वहां उपस्थित सभी बालक अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले –“सूरदासजी, आज आपने ऐसा कीर्तन क्यों गाया ?”

तब सूरदासजी ने विनम्रता से कहा –“जैसा अद्भुत श्रृंगार आपने किया है वैसा ही अद्भुत कीर्तन मैंने रचित कर गाया है.” सभी बालक सूरदासजी पर बहुत प्रसन्न हुए और कुछ दिन पश्चात श्री गिरधरजी सूरदास जी को लेकर नाथद्वारा पधारे और श्री गुसांईजी को उस अद्भुत घटना का सविस्तार विवरण दिया.
तब श्री गुसांईजी ने श्री गिरधरजी से कहा –“सूरदासजी पर संशय नहीं करना चाहिए था.
ये तो पुष्टिमार्ग के जहाज हैं अतः इन्हें भगवदलीला का अनुभव आठों पहर होता रहता है और इसीलिए सूरदासजी श्री महाप्रभुजी के अत्यंत कृपापात्र भगवदीय थे. 


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ध्रुव कुण्ड, मधुवन वराह पुराण कहता है कि पृथ्वी पर 66 अरब तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। यही वजह है कि व्रज यात्रा करने वाले इन दिनों यहाँ खिंचे चले आते हैं। हज़ारों श्रद्धालु ब्रज के वनों में डेरा डाले रहते हैं।ब्रजभूमि की यह पौराणिक यात्रा हज़ारों साल पुरानी है।
 चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का उल्लेख वेद-पुराण वश्रुति ग्रंथसंहिता में भी है। कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं से ही नहीं, सत युग में भक्त ध्रुव ने भी यही आकर नारद जी से गुरु मन्त्र ले अखंड तपस्या की व ब्रज परिक्रमा की थी।
 त्रेता युग में प्रभु राम के लघु भ्राता शत्रुघ्न ने मधु पुत्र लवणासुर को मार कर ब्रज परिक्रमा की थी। गली बारी स्थित शत्रुघ्न मंदिर यात्रा मार्ग में अति महत्व का माना जाता है।

द्वापर युग में उद्धव जी ने गोपियों के साथ ब्रज परिक्रमा की।
कलि युग में जैन और बौद्ध धर्मों के स्तूप बैल्य संघाराम आदि स्थलों के सांख्य इस परियात्रा की पुष्टि करते हैं।14वीं शताब्दी में जैन धर्माचार्य जिन प्रभु शूरी की में ब्रज यात्रा का उल्लेख आता है।15वीं शताब्दी में माध्व सम्प्रदाय के आचार्य मघवेंद्र पुरी महाराज की यात्रा का वर्णन है 
तो16वीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य, गोस्वामी विट्ठलनाथ, चैतन्य मत केसरी चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, नारायण भट्ट, निम्बार्क संप्रदाय के चतुरानागा आदि ने ब्रज यात्रा की थी।

राधा कुण्ड, गोवर्धन, मथुरा परिक्रमा मार्ग


इसी यात्रा में मथुरा की अंतरग्रही परिक्रमा भी शामिल है। मथुरा से चलकर यात्रा सबसे पहले भक्त ध्रुव की तपोस्थली
1. मधुवन पहुँचती है। यहाँ से 
2. तालवन, 
3. कुमुदवन,
4. शांतनु कुण्ड, दानघाटी, गोवर्धन
5. सतोहा, 
6. बहुलावन, 
7. राधा-कृष्ण कुण्ड, 
8. गोवर्धन 
9. काम्यक वन, 
10. संच्दर सरोवर,
11. जतीपुरा,चन्द्रमा जी मन्दिर,काम्यवन
12. डीग का लक्ष्मण मंदिर, 
13. साक्षी गोपाल मंदिर व 
14. जल महल, 
15. कमोद वन, 
16. चरन पहाड़ी कुण्ड, 
17. काम्यवन,
18. बरसाना,जल महल, डीग
19. नंदगांव, 
20. जावट, 
21. कोकिलावन, 
22. कोसी, 
23. शेरगढ,
24. चीर घाट, जतीपुरा मंदिर, प्रवेश द्वार, गोवर्धन
25. नौहझील, 
26. श्री भद्रवन, 
27. भांडीरवन, 
28. बेलवन, 
29. राया वन, यहाँ का
30. गोपाल कुण्ड, राधा रानी मंदिर, बरसाना
31. कबीर कुण्ड, 
32. भोयी कुण्ड, 
33. ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर, 
34. दाऊजी, 
35. महावन, 
36. ब्रह्मांड घाट, नन्द जी मंदिर, नन्दगांव
37. चिंताहरण महादेव, 
38. गोकुल, 
39. लोहवन, 
40. वृन्दावन का मार्ग में तमाम पौराणिक स्थल हैं।

दर्शनीय स्थल

ब्रज चौरासी कोस यात्रा में दर्शनीय स्थलों की भरमार है। पुराणों के अनुसार उनकी उपस्थिति अब कहीं-कहीं रह गयी है। प्राचीन उल्लेख के अनुसार यात्रा मार्ग में 
12 वन, दाऊजी मन्दिर, बलदेव 24 उपवन,चार कुंज,चार निकुंज,चार वनखंडी,चार ओखर,चार पोखर, मथुरा नाथ श्री द्वारिका नाथ, महावन
365 कुण्ड,चार सरोवर,दस कूप,चार बावरी,चार तट,चार वट वृक्ष,पांच पहाड़,चार झूला,33 स्थल रास लीला के तो हैं हीं, 

इनके अलावा कृष्णकालीन अन्य स्थल भी हैं। चौरासी कोस यात्रा मार्ग मथुरा में ही नहीं, अलीगढ़, भरतपुर, गुड़गांव, फरीदाबाद की सीमा तक में पड़ता है, लेकिन इसका अस्सी फीसदी हिस्सा मथुरा में है।

नियम

36 नियमों का नित्य पालन ब्रज यात्रा के अपने नियम हैं इसमें शामिल होने वालों के प्रतिदिन 36 नियमों का कड़ाई से पालन करना होता है, इनमें प्रमुख हैं 

धरती पर सोना, नित्य स्नान, ब्रह्मचर्य पालन, जूते-चप्पल का त्याग, नित्य देव पूजा, कर्थसंकीर्तन, फलाहार, क्रोध, मिथ्या, लोभ, मोह व अन्य दुर्गुणों का त्याग प्रमुख है

ब्रजब्रज के प्रमुख स्थल

मथुरा · वृन्दावन · गोवर्धन · बरसाना · महावन · गोकुल · बलदेव · काम्यवन · ग्वालियर · भरतपुर ·एटा

ब्रज के वन
कोटवन · काम्यवन · कुमुदवन · कोकिलावन · खदिरवन · तालवन · बहुलावन· बिहारवन · बेलवन ·भद्रवन · भांडीरवन · मधुवन · महावन · लौहजंघवन · 

मथुरा दर्शनीय स्थल

आदिवराह मन्दिर · कंकाली टीला · कंकाली देवी · कटरा केशवदेव मन्दिर · कालिन्दीश्वर महादेव · कृष्ण जन्मभूमि ·गताश्रम मन्दिर · गर्तेश्वर महादेव · गोकर्णेश्वर महादेव · गोपी नाथ जी मन्दिर · गोवर्धननाथ जी · गोविन्द देव मंदिर ·गौड़ीय मठ श्री केशव जी · चर्चिकादेवी मन्दिर · चामुण्डा देवी · जयगुरुदेव मन्दिर · दसभुजी गणेश जी · दाऊजी मन्दिर · दीर्घ विष्णु मन्दिर · द्वारिकाधीश मन्दिर · पद्मनाभजी का मन्दिर · पीपलेश्वर महादेव · बलदाऊ जी · बिरला मंदिर · बिहारी जी मन्दिर · भूतेश्वर महादेव · मथुरा देवी मन्दिर · मदन मोहन मंदिर · महाविद्या मन्दिर · यमुना के घाट · रंगेश्वर महादेव · राम मन्दिर · लक्ष्मीनारायण मन्दिर · वाटी कुंज मन्दिर · विजयगोविन्द मन्दिर · वीर भद्रेश्वर · श्रीनाथ जी भण्डार · श्रीनाथ जी ·सती बुर्ज · पोतरा कुण्ड · शिव ताल · राजकीय संग्रहालय · जैन संग्रहालय

यमुना के घाट

अविमुक्ततीर्थ · असिकुण्ड तीर्थ · ऋषितीर्थ · कनखल तीर्थ · कोटि तीर्थ · गुह्म तीर्थ · घण्टाभरणक तीर्थ · चक्रतीर्थ ·तिन्दुक तीर्थ · दशाश्वमेध तीर्थ · धारापतन तीर्थ · ध्रुव तीर्थ · नवतीर्थ · नागतीर्थ · प्रयाग तीर्थ · बटस्वामीतीर्थ · बोधि तीर्थ · ब्रह्मतीर्थ · मोक्ष तीर्थ · विघ्नराज तीर्थ · विश्राम घाट · वैकुण्ठ तीर्थ · संयमन तीर्थ · सरस्वती पतनतीर्थ · सूर्य तीर्थ ·सोमतीर्थ

वृन्दावन दर्शनीय स्थल

अष्टसखी कुंज · इस्कॉन मन्दिर · गोदा बिहारी जी · गोपी नाथ जी · गोपेश्वर महादेव · गोविन्द देव जी · गौरे लाल जी· जयपुर मन्दिर · जुगलकिशोर जी · बनखण्डी महादेव · बांके बिहारी जी · ब्रह्मचारी ठाकुर बाड़ी · मदन मोहन जी ·महारानी स्वर्णमयी मन्दिर · मीराबाई मन्दिर · मोहन बिहारी जी · रंग नाथ जी · रसिक बिहारी जी · राधादामोदर जी · राधारमण जी · राधावल्लभ जी · रूप सनातन गौड़ीय मठ · वर्द्धमान महाराज कुंज · शाहजापुर का मन्दिर · शाह बिहारी जी · श्री जी का मन्दिर · श्री टीकारी रानी की ठाकुर बाड़ी · श्री राधामाधव का मन्दिर · श्री राधाविनोद का मन्दिर · श्री लालाबाबू का मन्दिर ·श्री श्यामसुन्दर का मन्दिर · श्री साक्षी गोपाल का मन्दिर · सवामन शालग्राम · निधिवन · गरुड़ गोविन्द · नरीसेमरी · राधा स्नेह बिहारी

कुण्ड

दावानल कुण्ड- केवारिवन में · ब्रह्म कुण्ड · श्रीगजराज कुण्ड- श्रीरंग जी मन्दिर में · श्रीगोविन्द कुण्ड- वृन्दावन के पूर्व में श्रीरंग जी मन्दिर के निकट · ब्रह्म कुण्ड- रंगजी मन्दिर के उत्तर में · श्रीललिता कुण्ड- निकुंजवन (सेवा कुंज) में · श्रीविशाखा कुण्ड-निधिवन में

यमुना के घाट
इमलीतला घाट · केशी घाट · चीर घाट

गोवर्धन
कुसुम सरोवर · चकलेश्वर महादेव · जतीपुरा · दानघाटी · पूंछरी का लौठा · मानसी गंगा · राधाकुण्ड · श्याम कुण्ड · हरिदेव जी मन्दिर · उद्धव कुण्ड · ब्रह्म कुण्ड

बरसाना के दर्शनीय स्थल
राधा रानी मंदिर
नन्दगाँव
नन्द जी मंदिर
महावन
ब्रह्माण्ड घाट
गोकुल
नवनीत प्रिया मन्दिर
बलदेव
राधा कृष्ण मन्दिर 
यमुना मन्दिर 
कृष्ण बलदेव मन्दिर 
बिहारी जी मन्दिर 
श्री नाथ जी मन्दिर 
काली मन्दिर 
श्री बलभद्र शक्ति पीठ 
महर्षि सौभरी वेद पाठशाला 
और 
दाऊजी मन्दिर
काम्यवन

फिसलनी शिला · भोजनथाली · व्योमासुर गुफा · गया कुण्ड · गोविन्द कुण्ड · घोषरानी कुण्ड · दोहनी कुण्ड · द्वारका कुण्ड · धर्म कुण्ड · नारद कुण्ड · मनोकामना कुण्ड · यशोदा कुण्ड · ललिता कुण्ड · लुकलुकी कुण्ड · विमल कुण्ड · विहृल कुण्ड · सुरभी कुण्ड · सेतुबन्ध रामेश्वर कुण्ड


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श्री धाम वृन्दावन" का नाम जिभा पर आते ही रोम-रोम आनन्दित हो जाता हैं। भक्तों की नित्य निंरन्तर भीड़ धाम की रज मे लुठित होती हैं। हजारों-लाखों भक्त वृन्दावन मे आकर श्यामा-श्याम की कृपा प्राप्त कर रहे हैं।
"श्री धाम मे जिस रुचि एवं भाव मे हम जाते है। वैसी ही कृपा धाम बरसा देता हैं। धाम को कभी भी लौकिक दृष्टि से ना देख लेना। कि यहाँ मक्खी, मच्छर बहुत हैं। चारों तरफ सड़कें टुटी हैं। अच्छी धर्मशाला नहीं मिली, अच्छा कमरा नहीं मिला,ना ही वहाँ कोई व्यवस्था हैं। यह लौकिक दृष्टि का परिचारक हैं। जो वैष्णव हैं वोह ऐसा अभी नहीं सोचते। वोह तो हर क्षण श्यामा-श्याम की कृपा अनुभूत करते हैं।
"श्री किशोरी" कृपा बिना धाम मे प्रवेश नहीं हो सकता। जहाँ आज भी नित्य नवनूतन लीला का आस्वादन परम रसिकों को मिल रहा हैं। अगर धाम मे जाओ तो अपना ऐश्वर्य छोड़कर जाओ। दीन बनकर जाओ तब ही रस का संचार किशोरी कृपा से प्राप्त होगा। वृन्दावन श्री कृष्ण की रसपीठ हैं। यहाँ ठाकुर ठुमका लगा-लगाकर नाच रहा हैं। यह सब बातें बुद्धि से परे की हैं। जिसके एक ईशारे से अखिल ब्रह्माण्ड उदित होते हैं। उनको क्या अपना ऐश्वर्य दिखाओगे??अगर ऐसी दृष्टि लेनी है तो संतों, गुरूजनों के चरणों मे बैठकर संत्संग आस्वादन करना होगा।


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एक बार  एक संत हुए जो कदम्खंडी में रहते थे। जहां कदम्व के ही वृक्ष थे
इसलिए नाम कदम्वखंडी पड़ा।
उनकी बड़ी बड़ी जटाएं थी। नागा बाबा सघन वन में जाके भजन करते थे। एक दिन जा रहे थे तो रास्ते में उनकी बड़ी बड़ी जटाएं  करील की झाडियो में उलझ गई। उन्होंने खूब प्रयत्न किया किन्तु सफल नहीं हो पाए, और थक के वही बैठ गए और बैठे बैठे गुनगुनाने लगे।
हे मुरलीधर छलिया मोहन, हम भी तुमको दिल दे बैठे,
गम पहले से ही कम तो ना थे, एक और मुसीबत ले बैठे।
बहुत से ब्रजवासी जन आये और बोले बाबा हम सुलझा देवे तेरी जटाएं, तो बाबा ने सबको डांट के भगा दिया और कहा की जिसने उलझाई वोही आएगा अब तो सुलझाने।
बहुत समय हो गया बाबा को बैठे बैठे......
’’तुम आते नहीं मनमोहन क्यों, प्राण पखेरू लगे उड़ने, तुम हाय अभी शर्माते हो क्यों।’’
तभी सामने से सुन्दर किशोर हाथ में लकुटी लिए आता हुआ दिखा। जिसकी मतवाली चाल देखकर करोड़ों काम लजा जाएँ। मुखमंडल करोड़ों सूर्यों के जितना चमक रहा था। और चेहरे पे प्रेमियों के हिर्दय को चीर देने वाली मुस्कान थी। आते ही बाबा से बोले बाबा हमहूँ सुलझा दें तेरी जटा।
बाबा बोले तुम कौन हैं लाला?
तो ठाकुर जी बोले हम है आपके कुञ्ज बिहारी।
तो बाबा बोले हम तो किसी कुञ्ज बिहारी को नहीं जानते।
तो भगवान् फिर आये थोड़ी देर में और बोले बाबा अब सुलझा दें, तो बाबा बोले अब कौन है ।
तो ठाकुर बोले हम हैं निकुंज बिहारी।
तो बाबा बोले हम तो किसी निकुंज बिहारी को नहीं जानते।
तो ठाकुर जी बोले तो बाबा किसको जानते हो बताओ?
तो बाबा बोले हम तो रासबिहारी को जानते है
फिर ठाकुर जी बोले कि मैे ही तो रासबिहारी हूॅ।
बाबा ने फिर बोले तुम होगे लाला रासबिहारी, पर हमने तो नायं देखो ऐसो रासबिहारी, जोे किशोरी जू के बिना डोलतो फिरतो है और हमे ऐसे रासबिहारी से कोनो काम नाय, जो बिना ना किशोरी के बिहार करतो है। हमारो रासबिहारी लाला तो बिना किशोरी जू के एक पल न रहे है  और तुम अपने को कह रहे हो कि मैं ही रासबिहारी हूूॅं। तो ऐसे कुन्जबिहारी को दूर से नमस्कार है लाला।
भगवान बाबा के ह्दय का भाव समझ गये, कि किशोरी जू के साथ ही मेरे चाहते है, तो भगवान किशोरी जी को साथ लेकर प्रकट हो गए।
ले बाबा अब सुलझा दूँ।
तब बाबा बोले क्यों रे लाला हमहूँ पागल बनावे लग्यो!
राधा निकुंज बिहारी तो बिना श्री राधा जू के एक पल भी ना रह पावे और एक तू है अकेलो  खड्यो है।
तभी पीछे से मधुर रसीली आवाज आई बाबा हम यही हैं।
ये थी हमारी श्री जी।
और श्री जी बोली अब सुलझा देवे बाबा आपकी जटा।
तो बाबा मस्ती में आके बोले लाडली जू आपका दर्शन पा लिया अब ये जीवन ही सुलझ गया जटा की क्या बात है!!


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'श्याम सलिले यमुने! यह श्याम रंग तुमने कहाँसे पाया ? कदाचित श्यामसुन्दरका चिंतन करते-करते तुम भी श्यामा हो गयी हो। ये लोल लहरिया तुम्हारे हृदयके उल्लासको प्रकट करती है; अवश्य ही नटनागर यही कहीं समीप ही हैं, कि तुम हर्ष-विह्वल हो उठी हो! कहाँ है; भला बताओगी मुझे ?"

'क्या कहूँ बहिन! घरमें जी लगता ही नहीं; साँस जैसे घुट रही थी। जैसे-तैसे काम निपटा कर पानी भरनेके मिस चली आयी हूँ। सुबहसे श्यामके दर्शन नहीं हुए। समझाती हूँ मन को कि अभागे! तूने ऐसे कौनसे पुण्य कमाये हैं कि नित्य दर्शन पा ही ले! पर समझता कहाँ है दयीमारा! यदि दर्शन हो भी जाय तो कहेगा 'एक बार और' 'एक बार और'। आह! इसकी यह एक बार कभी पूरी न होगी; और न यह मुझे चैन लेने देगा हतभागा। सौभाग्यशालिनी तो तुम हो श्रीयमुने! कि श्यामसुंदर तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकते। यहाँ-वहाँ, कहीं-न-कहीं तुम्हारे समीप ही क्रीड़ा करते रहते हैं।'

'बहुत विलम्ब हो गया, मैया डाँटेगी; पर तुम्ही बताओ श्रीयमुने! घड़ा तो भरा रखा है, इसे उठवाये कौन ? श्यामसुंदर होते तो उठवा देते, उठवा देते या फिर फोड़ ही देते; अरे कुछ तो करते! यह अभागा तो ज्यों-का-त्यों भरा रखा है। यहीं-कहीं तुम्हारे तटपर होंगे! कहो न उनसे कि मैं जल भर आयी हूँ, जरा घड़ा उठवा दें। इतनी कृपा कर दो न देवी तपनतनये! परोपकारके लिये ही तो तुमने यह पयमय वपु धारण किया है, मुझे भी कृपा कर अनुगृहीत करो।'

हाँ, सखियो! मेरी मैया मुझे साथ लेकर उलाहना देने नंदभवन गयी। थी। जाते ही उसने पुकारा-'नन्दरानी! अपने पूतकी करतूत देखो और देखो मेरी लालीको हाल।'

हा भयो बहिन!' कहती नन्दरानी बाहर आयीं- 'कहा है गयो ?" तुनक कर मैया बोली—‘लाली जल भरने गयी थी। कन्हाईसे घड़ा उठवानेको कहा, तो घड़े-का-घड़ा फोड़ दिया; मुक्तामाल तोड़कर इसकी चुनरी भी फाड़ दी सो अलग! क्या कहें नन्दरानी! लगता है गोकुल छोड़कर कहीं अन्यत्र जाकर बसना पड़ेगा। तुम्हारे तो बुढ़ापेका पूत है, सो लाड़ दुलारकी सीमा नहीं; माथे लेयके कंधेपर बिठायें, पर इस नित्यके उधमसे हम तो अघा गयी है बाबा!'

'नेक रुको बहिन!' व्रजरानी हाथ जोड़कर बोली- 'कन्हाई तो तुम्ही सबका है। तुम सबके आशिर्वादसे ही इसका जन्म हुआ है। अपना समझकर तुम जो कहो, सो दंड देऊँ। बाहर खेलने गया है, तुम लालीको यहीं छोड़ जाओ, वह आयेगा तो इसके सामने ही उससे पूछूंगी।'

'तुम तो भोली हो नंदगेहिनी! तुम्हारा लाला भी कभी अपराध सिर आने देता है भला! तुम डाल-डाल, तो वह पात-पात फिरेगा।' मैया बोली। 'लालीको यहीं छोड़ जाओ, नीलमणि आता ही होगा। नंदरानीने कहा। मेरी मैया मुझे वहीं बिठाकर चली गयी।

ब्रजेश्वरीने मुझे नवीन वस्त्र धारण कराये, पकवान खिलाये और गोद में बिठाकर दुलारती हुई बोली- 'क्या करूँ बेटी! नीलमणि बड़ा चंचल है; तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी? आयेगा तो आज अवश्य मारूँगी उसे!'

मैंने भयभीत होकर सिर हिला दिया कि कहीं चोट नहीं आयी। मनमें आया कहीं सचमुच मैया मार न बैठे अथवा पुनः बांध न दें! अपनी मैयाकी ना समझी पर खीज आयी; क्यों दौड़ी आयी यहाँ!

तभी बाहर बालकों का कोलाहल सुनायी दिया मैं सिकुड़ सिमट कर बैठ गयी।

'कन्हाई-रे-कन्हाई!'– मैयाने पुकारा। 'हाँ मैया!'- श्यामसुंदर दौड़ते हुए आये। 'क्या है मैया! यह कौन बैठी है, किसकी दुलहिन है ?'– उन्होंने एक साथ अनेकों प्रश्न पूछ डाले।

मैं तो लाजमें डूबने लगी। मैयाने उसका हाथ पकड़कर कहा- 'आज तूने इसका घड़ा क्यों फोड़ दिया रे! मुक्तामाल तोड़करके चुनरी भी फाड़ दी और अब पूछता हैं कि यह कौन है? दारीके! तेरे उधम और गोपियोंके उलहनोंके मारे अघा गयी मैं तो!" 'नहीं तो मैया! मैं तो जानता तक नहीं कि यह कौन है! तू यह क्या कह रही हैं, मैंने तो इसे कभी देखा ही नहीं!'- श्यामसुंदर चकित स्वरमें बोले ।

कभी नहीं देखा ?'– कहते हुए मैयाने अपने हाथसे मेरा मुख ऊपर उठा दिया। 'अरी मैया! यह तो इला है। ताली बजाते हुए वे मैयाके गलेसे लटक गये।

'तू इसका नाम बदल दे।'

'क्यों रे?'– मैयाने चकित होकर पूछा।

'इला का क्या अर्थ है मैया ? वह पिलपिली सी इल्ली न? ना मैया, तू

इसका नाम बदल दे।'

'अरे मेरे भोले महादेव! इला का अर्थ इल्ली नहीं, पृथ्वी होता है; पृथ्वी।'

'ऐं! पृथ्वी होता है मैया ?' कहकर श्यामसुंदर बड़े भोले आश्चर्य से

कभी मुझे और कभी पृथ्वीको देखने लगे। मुझे हँसी आ गयी, तो मैयाको भी बात याद आयी; पुनः पूछा- 'तूने

इसका घड़ा क्यों फोड़ा ?"

श्यामसुंदर हँस पड़े - 'मैया, तू क्या जाने यह तो बावरी है बावरी ! घाटपर बैठी बैठी अकेली जमुनाजीसे बातें कर रही थी। मैं उधर गया पानी पीने को, तो देखा-सुना समीप जाकर पूछा तो बावरीकी तरह देखे जाय। मैंने हाथ पकड़कर उठाया और घड़ा उठाकर इसके माथेपर रख दिया। तो देख मैया! इसने ऐसे कमर और देह फरफरायी कि घड़ा बेचारा क्या करता, पट्से गिरा और फूट गया।'

सखियों! श्यामसुंदरने कमर और देह इस तरह हिलाई कि मैया और मैंने ही नहीं प्राङ्गणमें खड़ी सभी गोपियों और दासियोंने भी मुख पल्लूसे ढक लिये। किंतु श्यामसुंदर गम्भीर बने रहे- 'सुन मैया! मैंने इससे कहा- क्यों री, यह क्या किया तूने! घड़ा फोड़ दिया, अब मेरे माथे आयेगी क्या बातें कर रही थी तू यहाँ बैठी बैठी? मेरी बात सुनकर मैया! इसने ऐसी दौड़ लगाई की

भिड़ गयी; मैं गिरते-गिरते बचा, पर मेरी वनमाला तो टूटकर इसके साथ ही चली गयी थोड़ी दूर जाकर सम्भवतः ठोकर खाकर गिर पड़ी होगी। वहीं इसकी माला टूटी होगी और चुनरी भी फट गयी होगी।'

'मैया! मैं तुझसे सच कहता हूँ, तू इसकी मैयासे कहकर इसका ब्याह करा दे जल्दीसे। यदि किसीको मालूम हो जायगा कि यह पगली है, तो इसका विवाह न हो पायेगा।'

सखियों! मेरे लिये वहाँ बैठे रहना कठिन हो गया, हँसीसे पेट फटा जा रहा था। मैं उठते ही घरकी ओर दौड़ पड़ी, तुमने देखी उनकी चतुराई।


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कैसी मूर्ख हूँ मैं, अबतक अपनी व्यथा छिपाये फिरती रही। आज सखियोंसे मिली, उनकी बातें सुनी तो ज्ञात हुआ प्रत्येक घरकी बालिका और किशोरी इसी रोगसे ग्रसित हैं। हाँ, रोग ही तो कहना होगा। अच्छे भले मनुष्यको अनमनस्क बना दे वह रोग नहीं तो और क्या है ?

यह श्यामसुंदर इन्द्रजालिक है क्या? अभी तो सातवाँ वर्ष चल रहा है, सौन्दर्यकी - भोलेपनकी सीमा है जैसे! बात व्रजकुमारियोंकी ही नहीं है, चराचर विमुग्ध है इसपर मेरा भैया विमल दिनभर श्याम के साथ ही रहता हे फिर भी जबतक घरमें होता है, कन्हाईके अतिरिक्त अन्य चर्चा जैसे उसे भाती नहीं सुहाती नहीं। 

मैया जैसे ही देखती है ‘मेरा लाल, मेरा छोना' कहकर हृदयसे लगाये रहती है। और बाबा! बाबाकी तो बात ही न्यारी है, अंकमें लिये लिये घर बाहर घूमते रहेंगे और पूछते रहेंगे- 'लाल क्या खायेगा तू ? क्या लेगा?' कभी माखन मिश्री मँगायेंगे, कभी दूध-दही, कभी मोटी रोटी, कभी फल और कभी मेवे कभी नई व्यायी बछिया दिखायेंगे और कभी कुतियाके पिल्ले श्यामसुंदर भी भाँति-भाँतिकी इच्छा प्रकर करता है; बाबा उसे पूरी कर जैसे स्वर्ग सुख पाते हैं।

एक दिन मैया हँस-हँस कर बता रही थी कि ऐसे ही बाबा श्यामसुंदरको उठाये पूछ रहे थे—'क्या लेगा लाल ?' कि कन्हाईने मैयाका लहंगा था खड़ी मेरी ओर ऊँगली उठा दी। तब वह तीन बरसका भी पूरा नहीं था और मैं डेढ़ेक वर्षकी रही होऊँगी। ऐसा मैया बता रही थी।

उसका संकेत समझ बाबा हँस पड़े थे— 'ऋचा, इधर आ!' मैं मन्थर गतिसे समीप जा खड़ी हुई।

'यह कन्नू तुझे लेगा, जायेगी इसके साथ ?" मैंने स्वीकृतिमें सिर हिला दिया। मैया माखन ले आयी थी, बाबाकी बात सुनकर नयन भर आये- 'हमारे ऐसे भाग कहाँ! यह व्रजयुवराज और

यह एक विपन्न ग्वालकी पुत्री।' इससे क्या हुआ ? हमारे पास कुछ कम गायें हैं और क्या! हमारी लाली रूप गुणकी खान है।' बाबा बोले । खिला-पिलाकर बाबा हम दोनोंको गोदमें लेकर नंदपौरपर पहुँचे थे।

वहाँ जाकर नंदबाबासे कहा- 'अहो, नंद जू ! आज तुम्हारे कुँवरने मेरे घर आकर मेरी लालीको माँग लिया है।'

'क्या हुआ ?' वहाँ बैठे गोपों सहित हँसकर व्रजराजने पूछा। 'होगा क्या!' बाबा कहने लगे-'यह मेरे घरकी पौरि पर खड़ा था, मैंने गोदमें उठाकर पूछा- लाला क्या लेगा ? तो लालीको बताकर बोला इसे लूँगा।'

मैंने पूछा–'इसका क्या करेगा? तो बोला- खेलूँगा। मैंने कहा- अच्छी

बात है लाला! दोनों यहीं खेलो। 

तो बोला- यहाँ नहीं। इसको मेरे घर ले चलो, वहीं खेलूँगा। सो व्रजराज! यह लाली आजसे आपके लालाकी हुई। हम दरिद्रोंसे क्या बन पड़ेगा, आप इसे अपने महलकी दासी बना लिजियेगा।'

'अरे भैया, यह क्या कहते हो! लाला भी तुम्हारा ही हैं, इसे विवाहका बड़ा चाव है। अभी तो समझता नहीं, बड़ा होगा तो विवाह भी करा देंगे। दासीकी क्या बात कही तुमने! बहु घरकी दासी नहीं, लक्ष्मी होती हैं।' नंदबाबाने मुझे समीप बुलाकर सिरपर हाथ फेरा और नंदन काकाके साथ हमें यशोदा मैयाके पास भेज दिया।

सब बात सुन मैयाने मुझे गोदमें उठा लिया। दुलारकरके मीठे पकवान खिलाये, नये वस्त्र पहनाये और कन्हाईके समीप बिठाके निरखने लगीं। श्यामसे रोहिणी माँने पूछा-'नीलमणि तू कितने विवाह करेगा रे ?' " इत्ते सारे श्यामने दोनों हाथ फैला कर कहा 'अच्छा, भला?"

'हाँ मैया! कोई तेरे पाँव दबायेंगी, कोई मैयाके, कोई रसोई बनायेगी, कोई दही बिलोयेगी, कोई........

हँसी रोककर मैयाने पूछा- 'यह क्या करेगी ?' 'मेरे साथ खेलेगी।'

'काम-काज नहीं करेगी ?"

'नहीं मैया!'– श्यामने जोरसे नहींमें मस्तक हिला दिया। 'अच्छा नीलमणि! यह बता बेटा कि वृषभानुरायकी बेटी राधा तेरी बहु बनेगी तो क्या करेगी ?"

'उसकी तो मैं पूजा करूँगा।'

नीलसुंदरकी बातपर सब हँस पड़ी। मैयाने पुनः पूछा- 'पूजा कैसी रे?'

'जैसी तू और बाबा नारायण देवकी करते हो तिलक लगाकर, चढ़ाकर घंटी बजाकर, भोग लगाकर आरती उतारकर, चरणामृत और प्रसाद लेकर; वैसे ही।',,,

हँसीके मारे गोपियों का बुरा हाल हो गया। मैयाने हँसी रोककर कहा 

'बहुकी पूजा नहीं करते बावरे! वह कोई देवता है? पूजा तो प्रतिमाकी होती है।'

'कहा मैया! तू मुझसे महर्षि शाण्डिल्य, गौओंकी, ब्राह्मणों की पूजा नहीं करवाती ? ये सब क्या प्रतिमा हैं ?"

ये सब प्रतिमा न सही, पर ये बड़े हैं पृज्य हैं।'

'बहू पूज्य नहीं होती ? मैं तो करूँगा पूजा! मैं तो करूंगा!" श्यामने

हठ पकड़ ली।,,,

'बहुत अच्छा! कर लेना, अभी तो इस लालीके साथ खेल।'-मैयाने अपना पिंड छुड़ाया।

चार बरस पहले की बात है।

 वे नंदभवनसे पहनाये मेरे वस्त्र मैयाने 

सम्हालके रखे हैं। कभी-कभी बात-बातमें कह देती है मैया— 

'ऋचा तो कन्हाईकी है! वाग्दानकर चुके इसके बाबा हमारे यहाँ उनकी धरोहर है, जब चाहें ले जायँ! बड़े लोग कहते हैं,

 दाऊके कारण कन्हाईका विवाह रुका है। इसके अन्य सखा और भाइयोंके तो कई-कई विवाह हो गये। जबतक बलरामको मथुरा नहीं ले जायेंगे वसुदेव अथवा यही उसका विवाह नहीं हो जाता, नंदराय अपने पुत्रका विवाह नहीं करेंगे। संकोची हैं व्रजेश्वर!'

मैं सोचती हूँ- जिस दिन श्यामसुंदरका विवाह आरम्भ होगा, तो उसका अंत नहीं आना कभी। देखती हूँ सम्पूर्ण चराचरको एक ही रोग है कृष्णचन्द्रको चाहने का! किंतु अभागी केवल हम बालिकायें ही हैं। स्थावरके समीप वे स्वयं चलकर पहुंचते हैं, उन्हें दर्शन और स्पर्श-सुख प्रदान करते हैं। चर प्राणी स्वतन्त्र है, वे स्वयं ही उनके संग लगे रहते हैं। सखा दिनभर साथ रहते हैं, बड़ोंको कहाँ कोई रोक-टोक है ? बालिकाओंमें भी कई नित्य साँझ-सबेरे नंदभवनमें उन्हें टीका करने आरती उतारने जाती हैं। इनमें से अधिकांश उनके ताऊ चाचाकी बेटियाँ हैं। आज महानंद बाबाकी बेटी महिमा अपना संग्रह दिखाकर कह रही थी- 'तू भी चलेगी साँझको नंदभवनमें ? भैया तुझे भी उपहार देंगे।'

मैं क्या कहती ? मेरा उपहार ! कंचुकीसे निकालकर पाटल-पुष्प हाथमें लेकर सूँघा मैंने वन्य-पाटल भी क्या इतने सुगन्धित होते हैं ? आज तीन दिन हो गये, पर यह जैसे अभी वृन्त विच्छिन्न हुआ हो !

उस दिन संध्याको गौओंके संग लौटते गौरज-मंडित तनपर धातुचित्र अंकित, पुष्पाभरण धारण किये श्यामसुंदर जैसे दो श्रेष्ठ नट अभिनयके लिये मंचपर उपस्थित हुए हों, चंचलदृष्टिसे इधर-उधर निहारते गाते, बंसी बजाते, सखाओंसे हँसी कौतुक करते आगे बढ़ रहे थे। गायें पुनः पुनः मुड़कर देखती चलती थीं। कुछ सखा आगे, कुछ पीछे अट्टालिकाओंसे बहिनें पुष्पों लाजा हल्दी कुंकुमकी वर्षाकर रही थीं। कर क्या रही थीं, हाथमें थामे हुए द्रव्य अपने आप छूटकर गिर रहे थे श्यामसुंदर सम्मुख हों, तो शरीरकी सुध किसे रहती है ? नयन ललककर कृपणके धनसे जा चिपटते हैं। चलते चलते दृष्टि उठाई उन्होंने रक्तिम डोरोंसे सज्जित पद्मपलाशदललोचनोंकी वह मुस्कान संयुक्त दृष्टि कौन है त्रिलोक में जो भान न भूल जाय ? दक्षिण कर उठा, अलकोंमें सजा पाटल पुष्प करमें आया और प्रश्चित हुआ; आकर हृदयपर लगा। मनकी दशा कैसे कहूँ। हृदय रोगकी यह दिव्यौपधि पाकर प्राण हर्ष विह्वल हो उठे।

हाँ, आज ज्ञात हुआ यह मेरी ही नहीं प्रत्येक सखीकी कथा है, थोड़े बहुत अंतरके साथ।


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'सखी! यह घर-घाला बंसुरिया फिर बज उठी।'– व्यथित स्वरमें माधवी बोल उठी। उसकी बात पूरी होते न होते तो सबके गात शिथिल हो चले।

आह! आधी घड़ी पश्चात वंशीने विराम किया तो प्रत्येकके कंठसे 'आह' निकल गयी। स्वेद-स्नात तन और अश्रु स्नात मुखके मार्जन की शक्ति भी न रह गयी थी। अब भी नेत्रों के सम्मुख श्याम तमालकी शाखा से पीठ टिकाये वंशीमें स्वर भरते वनमाली अवस्थित थे। वह त्रिभंगललित छवि बाँयी ओर को झुकी ग्रीवा, झुकी पलकों तले अधखुले नयनोंकी वह मुग्ध दृष्टि, संकुचित अधरोष्ठ, वंशीके छिद्रोंपर नृत्य करती उंगलियाँ, फहराता पीतपट, कपोलोंपर अलकोंके साथ झुक आये कुण्डलोंकी छवि और स्तब्ध चराचर।

श्यामसुंदरकी यह मनोहर शोभा देखो सखी! त्रिभुवनमें कौन है जिसका धीरज न छूट जाय!'- कुछ प्रकृतिस्थ होने पर सुमति बोली अब भी सबके

अंगोंमें हल्का कंपन है, मन रह-रहकर अंतर्मुख हो उस तमाल-तरुकी ओर दौड़ पड़ना चाहता है। उसे बहिर्मुख करनेमें हमें कितना परिश्रम पड़ रहा है. यह हमीं जानती हैं। कुछ-न-कुछ चर्चा करना आवश्यक था मनको सम्हाले रहनेके लिये; पर चर्चा भी श्यामसुंदरके अतिरिक्त दूसरी आती- सुहाती हो नहीं हमें।

'हमसे तो ये वनपशु और गायें ही सौभाग्यशाली हैं बहिनों! कि नयन भर श्यामसुंदरके दर्शन तो पा लेते हैं।'- माधवीकी बात सुन पुनः कई जोड़ी आँखें मुक्ता वर्षणकर उठीं।

‘अरी वनपशुओंकी क्या बात करती हो! हमसे तो ये नदी, निर्झर, तरु, पादप भूमि, गिरी, कानन, पक्षी और कीड़े-मकोड़े सब श्रेष्ठ हैं। — भरे कण्ठ से पद्माने कहा–'सच हैं बहिन ! श्रीकृष्ण जब धरापर पाँव धरते हैं तो उस स्पर्शसे हुआ रोमांच ही दुर्वाके रूपमें प्रकट है। जब कान्हाकी बंसी बजती है, तो तरु-खोहरोंसे रसधार बह निकलती है, यमुना स्थिर हो जाती है। क्या कहूं! पत्थर भी कठोरता त्याग कर रस टपकाने लगते हैं। इनका दर्शन-स्पर्श पा चर अचर और अचर चर हो जाते हैं।'

'देखो, देखो बहिन!' हाथ उठाकर उषा सजल नयन भावभरे स्वर में उतावली हो बोल पड़ी— 'गायोंके-मृगोंके मुखमें लिये तृण ज्यों-के-त्यों दबे हैं। ये सब कानोंसे स्वर और नयनोंसे रूप माधुरी पान करनेमें तनकी सुधि भूल बैठे हैं।'

'बहिन! औरोंकी बात जाने दो, हम अपनी ही बात लें। यह बैरिन बंसुरिया जब जब भी बजती है, हमें हाल बेहाल कर देती है। इसके बजनेका कुछ निश्चित समय भी तो नहीं जब श्यामकी इच्छा हुई इसे मुखसे लगा लेते हैं। 

कल मैं खिरकमें गाय दुह रही थी कि यह सौत बज उठी।

 गैयाके चारो थनोंसे दूध झरने लगा और मेरे घुटनोंमें थमी दोहनी छूट कर भूमिमें लुढ़क गयी। मैं स्वयं कब तक चित्रलिखी-सी बैठी रही ज्ञान ही नहीं।'

'मैं मैयाकी आज्ञासे दादाके लिये छाककी तैयारी कर रही थी कि यह बैरिन बज उठी। 

क्या कहूँ सखी! लड्डुओंमें नमक और साग-सब्जीमें मीठा मिला दिया।

छाक भेजकर मैं भोजन करने बैठी-ग्रास कंठमें ही अटक गया भयसे।

साँझको दादा आयेंगे और मैयासे कहेंगे तो मैया क्या कहेंगी?

 पर साँझको गैया दुहते समय दादाने कहा- 'हेमा! आज लड्डु और लौकीका साग किसने बनाया था ?"

'मेरे तो बहिन! प्रान सूख गये।' धीरेसे बोली- 'मैंने।'

उन्होंने होकर मेरी पीठपर हाथ फेरा-'बड़े अच्छे बनाये थे बहिन! श्यामसुंदरने रुच रुच कर माँग माँगकर खाये बड़ी प्रशंसा की। मेरी बहिन पाकशास्त्रमें निपुण हो गयी है, इस सत्यसे मैं तो नितान्त अनभिज्ञ ही था तू ऐसे ही स्वादिष्ट पदार्थ बना बना कर रखा कर मेरे छींकेमें, जो कन्हाईको अच्छे लगे।'

मैं क्या कहती ?

'क्या कहूँ सखी! कभी तो ऐसा लगता है मानो वंशी हमारा नाम लेकर पुकार रही हो। ऐसेमें धैर्य रखना महा कठिन हो जाता है।' 

'सच कहती है तू!' एक साथ कई सखियाँ बोल उठीं।

'बहिन! बड़े-बड़े लोग श्यामसुंदरको अंतर्यामी कहते हैं, क्या वे हमारे अंतरकी बात भी जानते होंगे? यदि वे हमारी पीड़ा पहचानते हैं, तो क्यों इस दयीमारी वंशीसे हृदय जलाते हैं।'

'यह क्या कहती हो बहिन! बंसी जलाती ही नहीं, शीतल लेप भी लगाती है। दिनभरके अदर्शनके तापसे झुलसते हमारे हृदयोंको वंशीसे निसृत सुधा धारा ही तो संध्याको शीतलता प्रदान करती है।'

'इस वेणुने क्या तपस्याकी होगी सखियों! जिससे उसे श्यामसुंदर के कोमल अधर पल्लवोंकी शय्या मिली। वे इसे अपनेसे तनिक भी दूर नहीं होने देते। कभी फेंटमें, कभी करमें, कभी अधरपर धरे ही रहें। बड़ी बड़भागिनी है यह बंसी; कहाँ हम अभागिनें दर्शनको भी तरसती रहती हैं,,,,

और कहाँ यह वेणु आठों पहर संग लगी रहे।' 'क्यों सखी! किसी दिन श्यामकी बंसी हम चुरा ले तो ?"

सुनकर सब सखियाँ खिल उठी-'बंसी! यह कार्य कैसे हो ?'

बरसानेकी सखियोंसे बात करने की ठहरी

'एक दिन की बात कहूँ सखियों!' पाटला बोली-

 'मैं पानी भरकर आ रही थी, पथमें दाहिने पदतलमें काँटा लगा। न चला जाय, न रुका ही जाय,

बड़ी असमंजसमें पड़ी! तभी सम्मुखसे श्यामसुंदर आते दिखायी दिये, 

समीप आकर पूछा- 'पथमें क्यों खड़ी है सखी ?"

 'पांवमें काँटा गड़ गया है।'– मैंने कहा।

'कौनसे पाँव में ?"

'दक्षिण पद में।'

'तुम घड़े उतरवा दो, तो मैं बैठकर निकाल दूँ।'

 ‘नहीं सखी! मेरी बाट देख रहे होंगे सखा,,,, 

अब तेरे घड़े उतरवाऊँ, तू काँटा निकाले और मैं फिरसे घड़े उठवाऊँ, इतना समय नहीं है मेरे पास !

ऐसा कर, तू मेरे कंधेका सहारा लेकर पाँव उठा दे, काँटा मैं निकाल दूँगा।'

और कोई उपाय नहीं था बहिन! 

मैंने ऐसा ही किया। 

उन्होंने काँटा निकाल कर उस स्थानपर अपना थूक लगाकर मसल दिया; फिर बोले 'अब दुखेगा नहीं, जा!' और मेरी ओर देखकर हँस पड़े।

सबसे छोटी नंदा बोली-

'मैं जमुनामें नहाकर लौट रही थी।  सिरपर पानीका भरा घड़ा और हाथमें गीले वस्त्र लिये आ रही थीं। न जाने कब कंचुकी गिर पड़ी। पीछेसे पुकार सुनकर मैंने ठिठक कर मुख फेरा, तो हाथमें वस्त्र लिये श्याम खड़े थे।

 मैं लज्जित हो गयी।

 'अरी इत्ता-सा लीरा भी नहीं सम्हाला जाता तुझसे ?'- समीप आकर उन्होंने कहा।

 मैंने मौन हाथ बढ़ा दिया, तो अपना हाथ दूर हटाते हुए बोले,,,

 'मुँहमें जीभ नहीं है ? तू बोलेगी नहीं, तो मैं भी नहीं दूँगा; अपनी धौरी गैयाके गलेमें बाँध दूँगा।'

मुझे हँसी आ गयी- 'इससे धौरीकी क्या शोभा बढ़ेगी ? अपने ही गलेमें बाँध लो न !'

'अरी सखी! तू जितनी छोटी है, उतनी ही खोटी है! कहाँ तो बोल ही नहीं रही थी और बोल फूटा, तो मानो तलवारकी धार फेर दी।'- कहते हुए वस्त्र मेरे कंधेपर फेंक, दोनों गालोपर चिकोटी भर हँसते हुए चल दिये।

 सब सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी बात तो सच ही कही कान्ह ने।


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'अरी बहिनों! इतने दिनोंतक तो हम यही समझती रहीं कि यह श्याम रोग हमें ही लगा है, पर कल ज्ञात हुआ कि यह तो किसी-किसी ब्रजवधुको भी लग गया है।'— पद्मा बोली ।

'क्या हुआ सखी ?' – सब सुननेको उत्सुक हो उठी।

'होगा क्या! क्या तुमने कल नहीं सुना कि विमल दादाकी बहु बौराय गयी है ? '

हाँ सुना था; पर इसमें इस राजरोगकी कल्पना-गंध कहाँ है ?

 'अरी बहिन! हम तो फिर भी अच्छी है कि कहीं आमने-सामने होने पर एकाध बात तो कर लेती हैं। एक-दूसरीसे कहकर मनकी तपन बाँट लेती हैं। किंतु इन बहुओंकी दशा तो हमसे भी गयी बीती है! किससे कहें, कौन सुनें और श्यामसुंदरसे बात करना तो असम्भव-सा ही है। कोई हिम्मत करे भी तो कलंकित हो।'

"कलंककी भली कही बहिन! इसमें किसीका बस चलता है भला! हम कुल बोरिन सही, पर पशु-पक्षियोंको देखो, इन यमुनाको देखो, इन पत्थर-तरुओंको देखो, और-तो-और; इन कलंकी कहनेवाले बूढ़े बुढ़ियाओंको देखो! इन सबमें कोई है, जो श्यामसुंदरके बिना जीवन-धारणकी कल्पनाकर सके ? सृष्टिमें कोई नहीं जो श्रीकृष्णसे नेह लगाये बिना उनसे मन लगाये बिना रह सके!'

'फिर केवल बहुएँ ही सृष्टिसे बाहर है क्या ?' 

'ऐसा कहते हैं सखी! कि स्त्रीको पतिके अतिरिक्त अन्य पुरुषसे प्रेम नहीं करना चाहिये। यह महापाप है, सतीत्वके लिये कलंक है, नारी जातिमें वह अस्पृश्या-सी मानी जाती है।'

'बहिन! श्यामसुंदर क्या अन्य पुरुष हैं? बड़े-बड़े महात्मा, जो शाण्डिल्य ऋषि और भगवती पौर्णमासीके आश्रममें आते हैं; कृष्णकी चर्चा श्रीनारायणके समान करते हैं, उन्हें अंतर्यामी और सबकी आत्मा कहते-सुनते हैं। फिर यह क्या अपने वशकी बात है! उनका रूप ही नयन-मनको बरबस खींच लेता है, तो इसमें किसीका क्या दोष ?'

विमल दादाकी बहुकी क्या बात है ?

विमल दादाकी बहु परसों अपने देवर सूरजसे कह रही थी-लाला! अपने सखाकी कोई बात कहो न; तुमको लड्डू दूँगी।

सुनकर मैं समझ गयी। कि व्याधि यहाँ भी लगी है। 

सखी! तनका ताप सहना सरल है, मनका ताप महादुर्धर्ष होता है। 

कल सूरजकी भाभी क्षमा विकल होकर जमुनामें जा पड़ी।

तू यह सब कैसे जानती है?— माधवीने पूछा।

 'मेरा घर उसके समीप ही तो है, आज मैं उससे मिलकर आ रही हूँ।

आँखोंसे आँसुओंके प्रवाह बहाते, सहमती, सकुचाती और हिचकियोंके मध्य उसने मुझे बताया- बहिन ! प्रथम बार पनघटपर देखा था मैंने श्यामसुंदरको, उस दिनसे जाने क्या हुआ कि बार-बार उनको देखनेको जी चाहता; किसी काममें मन न लगे! प्रातः सांय देखनेसे मन न भरता था, अदर्शनकी ज्वाला भभक भभक उठती थी। सारे गृहकार्य उल्टे-सीधे होते, सासजी उलाहने देतीं। 

मैंने तुम्हारे दादासे पूछा- यह मुझे क्या रोग लग गया ?'

सुनकर वे हँस दिये—'कन्नू है ही ऐसा! 

उसे देखनेके पश्चात् और कोई दृष्टि-पथमें आता ही नहीं; यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं। मैं स्वयं भी घर आना नहीं चाहता, काम-काज करते हुए भी मनमें-आँखोंमें श्याम ही समाया रहता है। इसमें दुखी होने जैसा कुछ नहीं है।'

'मैं क्या कहती बहिन? मेरी अकुलाहट बढ़ गयी। कल ज घाटपर गयी तो आँसुओंने बाँध तोड़ दिये। 

आह! कैसे लेख लिखे विधाताने मेरे भाग्यमें कि 'पर पुरुष सों प्रीती भई' और वह भी अलभ्य; फिर समान उम्रका भी नहीं! कितने छोटे हैं मुझसे कान्ह कुँवर; सुना है अभी आठवाँ वर्ष भी पूरा नहीं हुआ। कैसी अनहोनी बात है-छी....छी ! घाट पर बैठे-बैठे जमुना जल पर दृष्टि गयी, तो अंतर्ज्याला और अधिक भभक उठी; न जाने क्या हुआ कि मैं जलमें कूद पड़ी। जब चेत आया तो तटपर एक चट्टानकी ओटमें पड़ी थी और समीप कन्हाई बैठे थे। मुझे नेत्रोंपर विश्वास नहीं हुआ, हाथ उनके चरणोंपर रखा, तो स्पर्शने सारे भ्रम तोड़ दिये।

'अब जी कैसा है ?

' वह सुधा स्यन्दी स्वर कानोमें पड़ा। 

'क्या हुआ! यमुनामें कैसे जा गिरी ?'– उन्होंने पुनः पूछा।

मैं क्या उत्तर देती ? एक हाथ माथेके नीचे लगाकर उन्होंने मुझे चट्टानके आधार बिठा दिया।

'क्या हुआ! कैसे हुआ यह ?'– उन्होंने फिर पूछा, तो मेरे नयन झर उठे । अपने करोंसे आँसू पोंछ कर व्याकुल स्वरमें बोलें- 'तुझे क्या दुःख है ?

मुझसे कह न !'

'यमराजके अतिरिक्त मेरा दुख और कोई नहीं मिटा सकता।' – मैंने भरे कण्ठसे कहा। उन्होंने अपनी हथेली मेरे होठोंसे लगा दी। नयन भर आये उनके;

ऐसा भी कोई कहता है! तू कह तो ?"

'कान्ह जू! मुझे बचाकर तुमने अच्छा नहीं किया। मेरा दुख महा लज्जाका विषय है, तुम सुनकर धिक्-धिक् कर उठोगे, फिर मुझसे भी कहते कैसे बनेगा ?'

 "तू कह तो!"

'कान्ह जू! मे. रो... म. न. तु म्हा रे च... र.,,, न... न.....में.... ल... गो... र.... हे.... ।'–

बड़ी कठिनाईसे मैं इतना ही कह सकी और रुलाई फूट पड़ी। 

उन्होंने मुझे भुजाओं में भर हृदयसे लगा लिया- 

'मुझसे प्रेम करना पाप नहीं! मैं सबका प्रिय हूँ, सबका अपना हूँ। मैं सबका हूँ, ओर सब मेरे हैं; मुझसे किया गया प्रेम ही सार्थक होता है। यह पाप और पुण्यका विषय नहीं,

तू ग्लानि छोड़ सखी! विमलसे पूछ लेना; वह भी तो मुझसे प्रेम करता है। मैं सबका हूँ; अबसे तू मुझे सदा अपने निकट पायेगी।'

 'बहिन! उसी घड़ीसे मुझे लगा, हृदयका खाली स्थान भर गया है। मुझे श्यामसुंदर अपने सन्निकट ही लगने लगे, उन्हें पानेकी व्याकुलता जाती रही। न मालूम यह सब कैसे हुआ ?'

'वह तो सखी! मैं जानती हूँ।' मैंने हँसकर कहा- 

'काकी चिंता कर रही थी कि बहुको जाने क्या हो गया है! कभी हँसती है, कभी रोती है; और कभी बड़बड़ाने लगती है।'

संध्याको सूरज आया तो देखते ही भागा और हाथ पकड़कर श्यामसुंदरको ले आया। उसे कहते सुना - ‘कन्नू! देख मेरी भाभीको क्या हो गया है ?'

‘क्या हुआ, देखूँ भला!'—उस समय मैं भी सबके साथ लगी तुम्हारे घर चली आयी थी।

श्यामसुंदरने कुछ क्षण हाथ-पाँव और मुख देखा, फिर कहा- 'काकी इसकी औषधि बरसानेमें है। कोई है लावन हारों, कि मैं ला दूँ ?' 

'अरे लाल! साँझ हो गयी है, पर औषधि आ जाती, तो रात शांतिसे कटती।'

'अच्छा काकी! मैं जाता हूँ!' उन्होंने कहा-'अरी पद्मा! तू मेरे संग चल।'

 ' मैया डाँटेगी, - मेने कहा,,

तो डाँट खा लेना चल मेरे साथ, मैया केवल तेरे ही है? मेरे बाबा मैया नहीं है क्या?— श्यामने खीज कर कहा।

 'चली जा लाली! तेरी मैयाको मैं मना लूंगी।'– काकीने कहा।

बरसाने जाकर श्यामसुंदरने मुझसे कहा- 'विशाखाको बुला ला विशाखा जीजी आई, तो उनसे कहा-'सखी ! श्रीकिशोरीजीका चरणामृत ला दो।'

'क्यों, क्या करना है ?'

'तू ला दे सखी! उपचार करना है।' उन्होंने कहा।

"किसका ? अपना या और किसी का ?"

'तू पद्मासे पूछ ले!'– उन्होंने कहा।

मुझसे सब बात सुनकर विशाखा जीजी चरणामृत ले आर्यों मुझसे बोली 'पात्र तू ले जा पद्मा! ये धैर्य न रख पायेंगे और उपचार धरा रह जायेगा।'

'अच्छा।'–कहकर हम चल पड़े। पथमें उन्होंने मुझसे कहा- 'मुझे बड़ी प्यास लगी है पद्मा! थोड़ा पात्रमेंसे दे दे।' 

'यमुनामें जल है, पी लो।"

'इसमें तेरा क्या जाता है भला? थोड़ा सा दे दे।'

'यह औषध है श्यामसुंदर! तुम स्वस्थ होनेपर भी क्यों लोभ करते हो ?'

 'तेरी तो नहीं !' 

'मेरी नहीं, तो तुम्हारी भी नहीं! बरसानेतक क्यों दौड़ लगवायी ? अपना ही चरणामृत दे देते।'

वे हँस पड़े–'करेलेकी बेलको नीमपर चढ़ा देता, क्यों ?'

मैं भी हँस दी- 'सो तो बिना चढ़ाये घर घरमें नीमपर चढ़ी बैठी है।' 

'तू तो नहीं न ?" श्याम ने पूछा

'ना बाबा ना, ऐसा रोग कौन पाले! औरोंकी दशा देखकर ही मुझे हँसी आती है।'

'मैया री! पाँव थक गये मेरे तो, चला नहीं जाता। थोड़ा विश्राम कर लें।' 

"अंधेरा घिरने लगा है। बाबा मैया चिंता करते होंगे ?" 

'तुम क्या छोरी हो कि प्रातः सांय देखना पड़े!'

'मेरी मैया खीज रही होगी, छोरीका जन्म ही बुरा ! संसार भरके रोग लगें, कलंक लगे और घर-बाहर सभी स्थानपर बंदिनी ?'

'तू क्यों मर रही है! तुझे तो कोई रोग नहीं लगा ?'- श्यामसुंदरने पत्थरपर बैठते हुए कहा।

 'अपना तो दूरसे ही प्रणाम है इन रोगोंको।'

'बड़ी भाग्यशालिनी है तू! अरे हाँ, तेरा वाग्दान हो गया और मुझे मुँह भी मीठा नहीं कराया। कैसी मूंजड़ी है री तू?"

'क्या ?'– मैं चींख पड़ी। 

'तू नहीं जानती ? झूठी कहीं की!'

'नहीं, मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं किसी और की बात होगी।' 

'नहीं पद्मा! मैंने बाबा ओर सखाओंके मुखसे भी सुना है कि तेरा वाग्दान अभिनंदन बाबाके बेटे अर्जुनसे हो गया है।

' कहा कहूँ! ऐसा लगा, जैसे किसीने कलेजा ऐंठ दिया हो। मुखसे एक कराह निकली, फिर कुछ चेत न रहा।

जब चेत आया तो मेरा मस्तक श्यामसुंदरके अंकमें था, दुःख और आनन्द की जैसे बाढ़ आ-आकर मुझे लपेटती रही ।

'यह क्या हुआ पद्मा! तू तो कहती थी मुझे कोई रोग नहीं! यह बैठे-बैठ अचेत होनेका रोग कबसे लगा तुझे ?'– उन्होंने पीठपर हाथ फेरते हुए पूछा ।

'श्यामसुंदर!' 

केवल इतना ही निकला मुँहसे।

 'क्या हुआ, रोती क्यों है ? कहीं दुःखता है ?'– उन्होंने आँसू पोंछते हुए

पूछा 

क्या कहती मैं! पीड़ासे हाथ-पाँव ठंडे होकर ऐंठने लगे। 

'मुँहसे बोल पद्मा! क्या हुआ तुझे, कहाँ दुःखता है ? ऐसेमें तुझे लेकर घर कैसे जाऊँगा ?'

'मैं तुमसे झूठ बोली मनमोहन ! व्रजमें कोई किशोरी बालिका ऐसी नहीं, जो तुम्हारे प्रेमरोगसे ग्रसित न हो; भले वह बेटी हो कि बहू! अभी तो क्षमाकी ही बात तुम्हारे सम्मुख आयी है, पर शत-शत हृदय आकुल व्याकुल तड़फ रहे हैं। तन तजैं कि मर्यादा; और तीसरा पथ नहीं उनके सम्मुख ! नित्य ही कोई व्याकुल हृदय यमुनाकी शरण लेगी। प्रातः होनेसे पूर्व ही तुम सुनोगे कि पद्मा यमुनामें डूब मरी। 

बड़ी कठिनाईसे अपनेको सम्हाल कर सब कुछ कह दिया। सोचा जब मरना ही है तो फिर मनकी बात कह ही दूँ !

जो दुरन्त लज्जा सदा हमारे होठोंपर अर्गला बन चढ़ी रहती थी, मृत्युको सम्मुख पा कुछ समयके लिये भाग खड़ी हुई। 

मैंने उठ कर उनके दोनों चरण हृदयसे दबा लिये। कितनी शीतलता है उन चरणोंमें; अंतरकी सारी ज्वाला शांत हो गयी। जैसे वह आनन्द शब्दोंमें नहीं समाता सखी! मेरे आँसुओंसे उन चरणोंका अभिषेक होता रहा, वे चुप बैठे रहे।

थोड़ी देर बाद बोले—'चल पद्मा! चलें; कोई ढूंढते आता होगा।

' मैंने धीरे से पाँव नीचे रख दिये, 

भरे गलेसे बोली- 'बस इतनी ही साध थी श्याम जू ! सो पूरी हो गयी। अब मुझे सिरपर हाथ रखकर विदा दो और आशिर्वाद भी कि अगले जन्ममें तुम्हारी दासी बननेका भाग्य पाऊँ !'

'बिदा कैसी सखी! तू झूठ बोली, तो मैं भी झूठ बोला !'

मैने चौंक कर आश्चर्यसे उनकी ओर देखा 'क्या हुआ, पकड़ी गई ना ?"

'तुमने भी किसीसे प्रेम किया है कान्ह जू ?'

'तुझे क्या लगता है ?'

'तुम्हें क्या पड़ी है ? सब ही तो तुम्हारे पीछे लगे डोलें!

' वे हँस पड़े और बोले- 'मैं तो प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। जगतके लोग तो उन्हींसे प्रेम करते हैं, जो उनसे प्रेम करते हैं। पर मैं तो सबसे प्रेम करता हूँ; भले वे करें या न करें!"

'सबसे प्रेम करते हो !"

' 'हाँ, पद्मा।

'मुझे तो लगता है तुम एक किशोरीजीसे ही प्रेम करते हो !!

'सखी! किशोरी जू और मैं दो नहीं हैं।'

'मुझसे करते हो ?' – कहते-कहते मैं लज्जासे लाल हो गयी।

'अरी बावरी !' उन्होंने मुझे हृदयसे लगा लिया – 'अभी तक तुझे विश्वास न हुआ ?"

'सुनो श्यामसुंदर ! जहाँ प्रेम किया जाता है, वह कृत्रिम होता है। प्रेम तो हो जाता है। हम बहुत चेष्टा करती हैं इस फंदेसे छूटने की; किंतु यह तो कसता ही जाता है। हमें ज्ञात ही नहीं कि हम इस जालमें कब जा पड़ी!'

'अरी चुहिया! तू तो मेरी भी गुरु निकली। अब तो फंदा कस गया है, जो होनी होय सो होय, यही न! तू यह औषधि क्षमाके तनपर छींट देना और बाकी पिला देना। कहना- बरसानेकी कुलदेवीका चरणामृत है, पुजारीजीने दिया है। मैं जा रहा ।'

'जैसे श्यामसुंदरने कहा, मैंने वैसे ही किया। इसीसे तुम्हें चेत आया है। 

क्षमा!'– मैंने उससे कहा।

'सखियों! कैसी हूँ मैं ! तुम सबको क्षमाकी व्यथा कहते-कहते अपनी भी कह गयी।'

मेरी बात सुन सब बहिनें हँस पड़ी- 'तुम कोई अकेली तो नहीं पद्मा ! अवश्य ही तुम हम सबसे अधिक सौभाग्यशालिनी हो कि इतना समय श्यामसुंदरके सामीप्यका मिला तुम्हें; उनसे वार्तालाप कर सकीं। अपनी ही नहीं, हम सबकी व्यथा भी उन्हें सुना सकीं।'

'उनका उत्तर सुनकर मनको बड़ी शांति मिली बहिन!'


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बड़भागी कदम्ब, स्मरण है न तुझे वह दिन ! क्या कहा ? सुननेका आकांक्षी है ? 

अच्छा तो सुन मेरे भैया ! मुझे भी इस समय कोई काम नहीं है। श्यामसुंदरके मंगल चरित्र कहने-सुननेसे किसको तृप्ति हो पाती है ?

'सखियों! भगवती पौर्णमासीसे 'मार्गशीर्ष महात्म्य' सुनकर लालसा जग उठी है 'मार्गशिर्ष स्नान करने की।'- श्रीकिशोरीजीने सब सखियों से कहा—

'यह कुछ कठिन नहीं है! सबेरे ब्राह्ममुहुर्तमें उठकर यमुनामें स्नान करना और कात्यायनीका पूजन। एक समय भोजन और आचार विचारकी पवित्रता, बस! जो तुम सबका अनुमोदन हो तो मेरी यह चाह पूरी हो सकेगी, अन्यथा मैया मुझे अकेली सूर्योदयसे पूर्व यमुना स्नानको नहीं जाने देगी।'

हम सब यमुना किनारे सघन तमालके नीचे अपने-अपने रीते घड़े लिये बैठीं थी। तमाल-मूलसे लगे पत्थरपर एक सखीने अपनी औढ़नी बिछा दी थी, उसी पर भानुकिशोरी विराजमान थीं। समीप ही उनकी कलशी पड़ी है और दोनों ओर ललिता-विशाखा बैठी हैं, सम्मुख श्रीचन्द्रावली है। सखियोंमें किसीकी कलशी पार्श्वमें और किसीकी सम्मुख अथवा गोदमें धरी है। श्रीभानुनंदिनीकी बात सुन सब उत्सुक हो उठीं।

एक सखी बोली- 'आपकी इच्छा ही हम सबकी इच्छा है किशोरी जू ! किंतु केवल सुननेके लिये पूछ रही हूँ कि 'मार्गशिर्ष-स्नान' से क्या होता है?' 

'मनोरथ पूर्ण होता है।'

'हम सब यह व्रत करेंगी।

 ‘अच्छा सखियों सूर्योदयसे घड़ी-दो-घड़ी पूर्व ही पूजन सामग्री लेकर घाटपर आ जाना। कल एकादशी है, कलसे ही व्रत आरंभ होगा। तुम सबने स्वीकार कर मुझपर बड़ी कृपा की।'- किशोरीजीने कहा। 

'यह क्या कहती हैं आप? कृपा तो आपने की है हमपर। हम तो मूढ़ अज्ञ है। किसी ओर पथको न पाकर अंधेरेमें भटक रही थीं; आपने उस अन्धकारमें आशा किरण सुझाई है।' – कई सखियाँ एक साथ बोलीं।

सूर्यादयसे पूर्व ही उठकर हमने एक दूसरीको पुकारकर साथ ले लिया। आगे नंदिश्वरपुरके घाटपर इकट्ठी हो गयी, सब ऊँचे स्वरसे श्याम गुणावलीका गान करते हुए वस्त्र उतार यमुनामें स्नान करने लगीं। जल शीतल था, कंपकपी छूटी, रोम उत्थित हुए, पर हमें अपने उत्साह और श्रीकृष्ण गुणगानमें लीन पाकर पीड़ा अवसर न पाकर कहीं जा छिपी आज प्रथम बार खुलकर मुक्तकण्ठसे मन भावतो गानेका अवसर मिला है। धीरे-धीरे गुनगुनायें या मन-ही-मन रोयें, इसके अतिरिक्त तो और कोई उपाय था नहीं! नहा-धोकर वस्त्र पहननेके पश्चात श्रीभानुललीने तटपर सैकत की मूर्ति बनायी। कुंकुम, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्यसे पूजा की, मन-ही-मन अभिलाषा उच्चरित की और सब प्रणतिमें झुक गयी, नयन मन भर आये सबके ।

उठकर आरतीका समारंभ किया, साथ ही एक दूसरेसे पूछने लगीं- 'री तूने कहा मांग्यो ?'

कोई सकुचाकर मुँह नीचा कर लेती

कोई हँसकर मुँह फेर लेती, 

कोई भाव भरे नयनोंसे पूछनेवालीकी ओर देखकर मौन रह जाती

 तो कोई ढिठाई हँसकर पूछनेवालीके गाल मीडकर कहती-

'सखी! जो तूने मांग्यो सोई मैंने मांग्यो ! तू अपनेसे पूछ कि तूने कहा मांग्यो ? मुझसे पूछ के क्या करैगी।'

इस समय तो कोई कुछ नहीं कह सकी, किंतु आरती करते हुए सभी एक स्वरमें गा उठीं

आद्याशक्ति महाशक्ति कात्यायनी देवी दयाकरि देहु दान। 

नंदगोप सुवन पति होय हमारे, विनय सुनहुधरि कान ॥

आरती-परिक्रमाके पश्चात प्रसाद वितरण हुआ और हम पुनः देवी कात्यायनी और व्रजभूषणके गुण गाती गृहोंको लौट चलीं। यही नित्यक्रम बन गया हृदयमें आनंद सागर उमड़ा पड़ता, नित्य ही लगता आज देवी प्रसन्न होकर कहेंगी- 'वरं ब्रूहि ।' कुछ-न-कुछ त्रुटि रह गयी आज, कल अवश्य प्रसन्न होंगी। हमारा विश्वास और प्रतिक्षा अटल थी।

आज.... आज.... पूर्णिमा है; हमारे व्रतका अंतिम दिन आज तो अवश्य ही देवी प्रकट हो जायेंगी। हम सब गातीं और उत्साहसे उछलती यमुना तटपर पहुंची। वस्त्र उतारकर लगी जलमें गोते लगाने। कहीं एक दूसरी पर जल उछाल रही थीं तो कहीं दो-दो तीन-तीन मिलकर डूबकियाँ लगा रही

थीं।

तभी अचानक तटपर कई कण्ठोंके हँसनेका शब्द हुआ। 

‘ये छोरे कहाँसे आ गये?’ – हम सोच भी न पायी थीं कि वंशीनादने बरबस दृष्टि खीच ली।

क्यों महाभाग्यवान कदम्ब ! वह दिन याद है न तुझको ? 

मुरलीधरकी वह अपार शोभा; उसका वर्णनकर सके ऐसी जीभ- ऐसी भाषा किसके पास है?

हम सबके वस्त्र डालपर धरे, करमें मुरली लिये, तुम्हारी डालपर बैठे मुस्करा रहे थे। पीछे पूर्व दिशामें उदित होते भगवान् भुवन भास्करका अरुण बिम्ब उनका आभा मंडल प्रतीत होता था। वह मुस्कान वह छवि हृदयसे निकलती नहीं भैया!

पाँच से सात बरसकी-वयकी बालिकायें हम सब और श्यामसुंदर भी हमारे समवयस उनके सखा हमारे भाई-भतीजे नित्य हम उनको चिढ़ाती और वे हमें कोई न कोई अवसर तो नित्य मिल ही जाता है। 

आज.... आज हम गले तक ठंडे पानीमें डूबी भला उनका क्या प्रतिकारकर सकती है? 

सारी चंचलता सारी हाँस हवा हो गयी। 

श्यामके सखा उठाकर हँस रहे थे और हमें कुछ समझमें नहीं आ रहा था कि क्या करें ?

तनकी लाज तो तारुण्यका भूषण है श्यामसखा ! वह हमें क्यों सताती, कलतक तो हमारी मैया हमें घाटपर नग्न स्नान कराती थीं और हम भी जब जल भरने जातीं तो वस्त्र उतारकर नहा लेतीं। श्याम और इनके सखाओंको भी हम देखतीं वे कछनी पटुका तटपर रख धम्-धम् करके जलमें कूद पड़ते। लज्जा तो वयस्कोंको ही समीप फटकती हैं।

ग्लानि इस बातकी थी कि श्यामसुंदरकी इस अचगरीका क्या उत्तर दें उन्होंने वंशी तो हमें सचेत करनेको बजायी थी, ज्यों ही हमने उन्हें देखा, त्यों ही उन्होंने बंसी फेंटमें खोंस ली।

हम सब एक दूसरेका मुँह देखने लगी कि अब क्या करें! कभी नीची दृष्टिसे श्रीकृष्णको देखती और कभी जलको निहारने लगतीं। हम शीतसे काँप रही थीं, दांत परस्पर संघर्षकर रहे थे, ऐसेमें श्यामने यह कैसी करी ! 

इस दयीमारे अभागे मनको क्या कहूँ। इतने पर भी क्रोध नहीं आ पा रहा था। मनमें आता था, हम अनंतकाल तक ऐसे ही खड़ी, उस शोभाको निहारती रहें, पर मन चीती कब हुई है। अंतमें चंद्रावली जीजी बोली

'श्यामसुंदर! तुम्हारे उधमकी सीमा हो गयी, हमारे वस्त्र काहेको लेकर वृक्षपर चढ़ बैठे हो ? दो हमारे वस्त्र !'

'आकर ले जाओ।'– श्यामसुंदर हँसकर बोले।

'हम भला वृक्षपर चढ़ेंगी? जहाँ हमने रखे थे, वहीं रख दो; अन्यथा हम तुम्हारे बाबाको कह देंगी।'

'जा सखी! जाकर कह दे अभी; मैंने तुझे कब मना किया ?" 

'देखो श्यामसुंदर! हमको ऐसे विनोद नहीं सुहाते; हमारे वस्त्र दे दो और अपने गैल लगो।'

'विनोद मैं भी नहीं कर रहा सखी। तुम ठंडसे काँप रही हो, ऐसेमें क्या विनोद करूँगा भला ? आओ अपने-अपने वस्त्र ले लो।'

'श्यामसुंदर! तुम व्रजराजकुमार हो, ऐसा उपहास तुम्हें शोभा नहीं देता। हमारे वस्त्र लौटा दो!'- विशाखा जीजी बोली।

'मैं कह चुका हूँ सखी! उपहास विनोद कुछ नहीं कर रहा! तुम चाहो तो एक साथ आकर ले जाओ, चाहे एक-एक आकर ले जाओ। मैं ऊपरसे वस्त्र डाल दूँगा।' 

'ऐसा हठ क्यों करते हो मोहन! हम शीतमें ठिठुर रही हैं। तुम तो धर्मका मर्म जानते हो। धर्मकी रक्षा और दुष्ट दलन लिये ही तुम अवतरे हो। यह कौन-सा धर्म है कि हम अबलाओंको सता रहे हो।'– ललिता जू बोली।

 'सखी! यदि तुम मुझे धर्मका रक्षक मानती हो; तो फिर मेरा कहा मानो और बाहर निकल आओ। तुमने जिस उद्देश्यसे व्रत किया है वह इस नग्न स्नानसे नष्ट हो जायेगा।'

यह तो बुरा हुआ! अबतक तो हम श्यामसे हारनेकी शंकासे उत्तर प्रति उत्तर कर रही थी और हठ पूर्वक जलमें खड़ी थीं। अब तो ये कह रहे हैं कि व्रत ही नष्ट हो रहा है। एक क्षणमें ही हम दीन हो गयीं, आंखोंमें जलभर आया। अब तो स्वामिनी जू ही कुछ करें तो हो। सबने आशापूर्ण नेत्रोंसे उनकी ओर देखा ।

'श्यामसुंदर! हम क्या कहें; हम तुम्हारी दासी हैं। तुम्हारे अतिरिक्त हमारी गति नहीं, तुम जो कहा सो सिर धारें!'- नमित मुख, भरित कण्ठ श्रीभानुकुमारी बोलीं।

 'श्री जू! नग्न स्नानसे वरुणदेवका अपमान हुआ है; तुम सबने महिने भर तक यह अपराध किया है। यदि तुम अपनेको मेरी दासी मानती हो तो बाहर आकर दोनों हाथ जोड़ वरुणदेवको प्रणाम करो, जिससे अपराधका मार्जन हो जाय।'

कदम्ब ! कितने सदय हैं नंदसुअन, हम अबतक इनके इस कार्यको उधम ही समझ रही थीं। अब समझमें आया, वे तो हमारे खंडित होते व्रतकी रक्षा करने आये हैं। हम सब अपराध बोधसे दब गयीं। मुख नीचे किये बाहर आयीं, श्यामकी दयाको स्मरणकर मन गद्गद हुआ जा रहा था।

'हाँ, अब प्रणाम करो और मन ही मन अपने अपराधकी भी क्षमा मांगो।'

एक साथ सहस्र सहस्र हाथ जुड़ गये मस्तक झुक गये और आ हृदय पुकार उठे – 'हे देव! हमारे अपराध क्षमा करो।"

कदम्ब तुम तो देख रहे थे - आरम्भमें उनके सब सखा भी यही समझे थे कि हम इन छोरियोंको छकाने-चिढ़ाने आये हैं। पर वरुणके अपराधकी बात सुन वे भी हँसना भूल आपसमें कहने लगे – 'कन्हाई कितना सदय है, इनका व्रत बचा लिया।

जैसे ही हमने प्रणाम किया, सबके वस्त्र अपने-अपने कंधोंपर आ गिरे।

'अब घर जाओ, खड़ी क्यों हो ?'– हमें वस्त्र पहने खड़ी देख, वृक्ष कूदते हुए बोले ।

 क्या कहें पैर उठते नहीं, हृदय भर आया है, हम जहाँ-की-तहाँ खड़ी रहीं।

 'अरी जाओ न ! घर नहीं जाना ? जाकर बाबासे कह दो मैंने तुम्हारे वस्त्र चुरा लिये।'— वे हँसते हुए हमारे सम्मुख आकर खड़े हो गये।

हमारे मस्तक झुक गये, नेत्रोंसे निकली बूंदे धराको सिक्त करने लगीं।

 "तुम्हारा मनोरथ जानता हूँ मैं!'– उनका गम्भीर स्वर सुन चकित हो हम उन्हें निहारने लगीं।

 आजतक कभी कोई बात उन्होंने गम्भीरता कही हो स्मरण नहीं आती। आजका स्वर अभितपर्व था। धीर गम्भीर, पर धीमे स्वरमें वे कहते गये-

 'आगामी शरद रात्रियों में हम साथ ही वन-विहार करेंगे। साथ ही नाचेंगे, गायेंगे और खेलेंगे; अब

घर जाओ।' वे सखाओंकी ओर लौट पड़े।

हमारे मनको हाल कहा पूछो!

 अंधेको जैसे आँखें मिलीं, घाममें तपते को वट छाया सुलभ हुई हो जाते हुए श्यामसुंदरको देखती रहीं, 

जब वे आंखोंसे ओट हुए तो किसी सखीने गीत आरम्भ कर दिया। उन्हींके गीत गाती, उन्हींके वचनोंको-रूपको स्मरण करती लौटीं हम सब 

कदम्ब, तुम तो उनकी बातके साक्षी हो न! कब आयेगा शरद ? 

कब होगी वह धन्य घड़ी ? 

मैंने सघन घुंघुरुओंवाले नूपुर मँगवाये हैं। कैसा होगा वह समारोह ? 

शत-शत तारिकाओंके मध्य मानो उडूपति हाल तो बसन्त है; 

बहुत दूर है शरद ! भगवान् भुवनदीप; कृपा करके शीघ्रता करो न ! 

वह.... वह.... आनंद कैसे सम्हाला जायेगा मुझसे, 

जिसकी कल्पना ही विह्वल कर देती है।

उनके कर.... में कर दिये... नृत्य के..... लिये... प्र. स्तु त हो ऊं..गी. मैं.... ।


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'क्यों री हेमा! तू ऐसी मरीमरी-सी क्यों हो रही है ? " उत्तरमें हेमाकी आंखें मुक्ता-वर्षण करने लगीं। हम सबने चकित हो उसे घेर लिया।

'यह क्या बहिन! हमें न कहोगी मनकी बात ?"

'क्या कहूँ बहिनों! मैं महाअधम हूँ; किसी प्रकार इस तनसे मुक्ति पाऊँ तो शांति मिले!'– हेमाने रोते हुए कहा।

"ऐसी क्या बात हो गयी ?"

'कहते लज्जा लगती है बहिनों! एक दिन गायें दुही जा चुकी तो मैं बछड़े बाँधने खिरकमें गयी नीलाका बछड़ा गौराङ्ग बैठा था, सबसे पहले मेरी दृष्टि उसी पर पड़ी। मनमें था, रज्जूका एक संकेत दूँगी तो वह उठ खड़ा होगा। किंतु सम्मुख होते ही स्मरण न रहा कि मैं क्यों आयी हूँ-मुझे क्या करना है,,,

मैं तो उसके समीप उसे गोदमें लेकर बैठ गयी। 

वह भी अपना मुख – सिर मेरे अंकसे टिकाकर अधखुली आंखोंसे मुझे देखने लगा।"

'सखी! कहते लज्जा लगती है, पर बिना कहे तुम मेरी अधमताका परिचय कैसे पाओगी? 

कैसे ज्ञात होगा तुम्हें कि हेमाकी इस स्वर्णलता-सी देहमें कज्जलसे भी अधिक काला मन है। 

क्या कहूँ; गौराङ्गके स्पर्श मात्रसं मुझे रोमोत्थान हो आया, हृदय आनंदसे उद्वेलित होने लगा और उसके उन अधखुले नेत्रों की दृष्टिने तो मेरी सारी चेतना हर ली। कितना समय व्यतीत हुआ मुझे मालूम नहीं! न जाने कब वह उठकर अन्यत्र चला गया पर मैं वैस ही संज्ञाशून्य सी बैठी रही।'

'मैयाने आकर डाँटा तो बाहरी ज्ञान हुआ। सम्पूर्ण रात्रि वह स्पर्श मुझे रह-रहकर रोमांचित करता रहा। 

प्रातः मंगल भैया आये, तुम जानती हो मेरे भाई नहीं हैं। मंगल ही हमारे बछड़े चराने ले जाता है। 

मैयाने छींका सजाकर दिया कि उसे थमा आऊँ।

 मैं खिड़कमें जाकर जैसे ही उसे छींका देने लगी, तो उसने हँसकर मेरी ओर देखा और बोला- इसमें क्या-क्या पकवान रखे हैं सखी ?"

'उसकी दृष्टि, उसकी हँसी और स्वरने मेरी वही स्थिति कर दी जो गौराङ्गके स्पर्शसे हुई थी। मुझे स्मरण ही नहीं रहा कि सदा 'हेमा' अथवा बहिन कहने वाला मंगल आज मुझे 'सखी' क्यों और कैसे कह रहा है?

बहिनों! मैं महा अधम हूँ तुम सब मुझसे घृणा करो, मुझे धिक्कारो।'- कहती हुई हेमा रोती हुई हमारे चरणों में गिर पड़ी।

'सुन हेमा! तू धैर्य धारण कर हमारी बात सुन! यह कोई तेरी अकेलीकी ही व्यथा नहीं; यह सब थोड़े-बहुत अंतरके साथ हम सबपर गुजरी है। 

महिनेभर-से जड़, चेतन और मनुष्य, सबकी मति गति पलट गयी है। 

तु क्या नहीं देखती ? पहले सब के सब बछड़े और बालक श्यामसुंदरके साथ वनसे लौटकर नंदभवन ही जाते, वहाँसे गोप जाकर अपने-अपने बछड़े लेकर आते; गोपियाँ रात होनेपर बालकोंको बहला-फुसला कर ही ला पातीं। कोई श्यामसुंदरका साथ छोड़ना नहीं चाहता था। अब तो सब बालक अपने अपने बछड़े लेकर सीधे घर चले जाते हैं। कोई भी तो श्यामके साथ नंदभवन नहीं जाता। पहले प्रातः होते ही बालक नंदभवनमें इकट्ठे हो जाते थे और उनके साथ ही बाहर निकलते। और अब अपने घरके सामने आनेपर बछड़े लेकर पथपर ही समूहमें मिल जाते हैं। पथमें भी हम प्रातः सायं देखती हैं सब अपने आपमें मगन नाचते-गाते चलते हैं, कोई कृष्ण-बलदाऊसे विशेष प्रीति नहीं दिखाते।

 पहले तो बिछुड़ते तो जेसे प्राणोंको कोई शरीरसे अलग कर रहा हो, ऐसे व्याकुल होते!'

'सच कहती है वसुधा!' विद्या बोली- 

'पहले तो बछड़े भी फिर-फिर कर कान्ह जू को निहारते, दौड़ दौड़कर सूंधते; अब तो वैसा कुछ भी नहीं है।'

'हाँ बहिन! अब तो कोई श्यामसुंदरकी बात भी नहीं करता! सब बड़े बूढ़े गोप-गोपी अपने-अपने छोरे बछड़ोंकी बात करते हैं और पहले तो व्रजमें श्यामको छोड़ और कोई चर्चा थी ही नहीं!'

'यह क्या बात हुई, कुछ समझमें नहीं आता !'

'कुछ रहस्य तो है।'

'अरी बहनो! ये ऋषि-मुनी श्यामसुंदरको नारायणके समान बताते हैं, इसीसे सबके मन-प्राण उनमें लगे रहते थे। किंतु महिने भरसे ये क्या हुआ है। समझ में नहीं आता!'

"किससे पूछे ?"

'श्रीकीर्तिकिशोरीके पास अवश्य इसका कुछ उत्तर होगा।' 

" अरे देखो विशाखा जीजी आ रही है।'

हम सब उठकर यथायोग्य उनसे मिलीं। 

उनके बैठ जानेपर प्रज्ञाने

कहा- 'यह सब क्या हो रहा है जीजी!' 

हँसकर जीजी बोली- 'क्या हो रहा है री?' 

और उनकी दृष्टिमें एक रहस्य-सा काँध गया।

'ये ग्वाल बाल, गोप-गोपियाँ और बछड़ोंने सारे व्रजकी गति मति उलट दी है। बरसानेका क्या हाल है ?" 

'हाल क्या होगा! जो यहाँ है, वही वहाँ भी होगा।'- जीजी हँसकर बोली।

'यह क्या, कैसे हो गया ?'- एक साथ कई बोल पड़ीं।

'क्या हुआ यह तो मुझे ज्ञात नहीं! किंतु श्रीकिशोरीजीने कहलवाया है कि कोई सखी अपनी इच्छासे किसी गोप बालक और बछड़ोंके साथ, जो

वनमें जाते हैं—न बोले, न स्पर्श करे ! यहाँ तक कि समीप भी न जाय, चाहे वह अपना सगा भाई ही हो! और तो और, दृष्टि विनिमय तक न करें।"

सखियाँ चकित होकर विशाखा जू का मुख देखने लगीं।

 ‘अरी बहिनों! तुम जानती नहीं, इन दिनों तुम्हारे भाई, भाई नहीं; बछड़े,

बछड़े नहीं; और क्या कहूँ ! प्रथम दिन तो छिंका-लकुट-आभूषण और श्रृंग भी वही नहीं थे, जो पहले रहे थे। ये सब उपकरण तुम्हारी माताओं को नवीन जुटाने पड़े होंगे।

'आप ठीक कहती हैं।' कई एक साथ बोलीं- 

'महिनाभर पहले मेरे भैयाका लकुट छींका और आभूषण नये बनवाये थे। किंतु यह सब कैसे क्या हुआ?'

'सब ठीक है, तुम अधिक सोच विचार मत करो। जैसा किशोरीजीने कहलाया है, उसीके अनुरूप चलो।'

'ऐसा कब तक चलेगा ?"

'कौन जाने !"

'यह तो उचित नहीं, सभीकी प्रीतिके केन्द्र श्यामसुंदर हैं। उनको छोड़कर सब के सब बलात दूसरी ओर खिंचे चले जा रहे हैं।'

'सखी! क्या उचित है और क्या अनुचित, इसकी चिंता छोड़कर अपनेको इस उपाय द्वारा बचाओ।'–कहकर विशाखा जू उठ खड़ी हुईं, हम सबसे मिलकर उन्होंने प्रस्थान किया।


रसिक वाणी
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संत चऱित्र
  • भोरी सखी (भोलानाथ जी )
  • अग्रअली
  • हित हरिवंश