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भोरी सखी (भोलानाथ जी )

मध्यप्रदेश में  “भेलसा” नामक स्थान पर  एक परिवार था  जो भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था ...उस परिवार के मुखिया थे  छेदालाल जी ...इनकी संतान हुयी नही...अवस्था बढ़ती ही जा रही थी ।

अमावस्या का दिन था कोई ब्राह्मण द्वार पर आए थे ...भिक्षा माँगी तो छेदा लाल जी की धर्मपत्नी जब भिक्षा लेकर आयीं  तो ब्राह्मण ने पूछ लिया - आपके सन्तान ?    परम भक्त छेदा लाल जी की पत्नी ने कह दिया ...हे प्रभो ! मेरे कोई पुत्र नही है ...ब्राह्मण बिना भिक्षा लिये आगे बढ़ गये ।

उस दिन बहुत दुःख हुआ  छेदालाल की पत्नी को  , पति देव समझाते रहे पर  सन्तानहीन रहना ये   अब इन्हें  असह्य हो रहा था ।   रात भर रोती रहीं  ये .....पतिदेव  श्रीधाम वृन्दावन के प्रति अनुराग से भरे थे ....पत्नी का मन बहल जाएगा  और श्रीराधाबल्लभ लाल जू की कृपा भी हो जाएगी ...ये सोचकर मध्यप्रदेश के भेलसा स्थान से श्रीधाम के लिए ये दोनों चल दिये थे ।

श्रीवृन्दावन में जब पहुँचे ....तब  इनकी पत्नी को  दिव्य दिव्य सकुन होने लगे......इनके कुल में श्रीराधाबल्लभ जू की ही उपासना थी  इसलिए बाँके बिहारी जी के दर्शन करके ये  श्रीराधाबल्लभ जी ही पहुँचे ....पर वहाँ जाते ही इनकी पत्नी को  पता नही क्या भाव उठा  इन्होंने रोना शुरू कर दिया ....”बयालीस लीला” श्रीध्रुवदास जी द्वारा विरचित   इस वाणी जी का पाठ और  वहाँ के गोस्वामी जी  इनकी रसमय व्याख्या करके बता रहे थे ।  

छेदा लाल जी की पत्नी  अपने अश्रुओं को पोंछ कर  वहीं बैठ गयीं .......

“मान कुँज  में  श्रीजी मान कर गयीं हैं ....प्यारे श्याम सुंदर मना रहे हैं ...अपने पलकों को प्यारी के चरणों से छुवा रहे हैं ....हा हा खा रहे हैं .....मान जाओ ना प्यारी !   पर श्रीजी मान नही रही हैं ।

कुछ ही देर में   श्याम सुन्दर  अन्तर्ध्यान हो गये ...श्रीजी  की व्याकुलता बढ़ गयी ....

इस लीला को सुनते ही  छेदालाल की पत्नी मूर्छित हो कर गिर गयीं थीं .....उन्हें देह सुध भी ना रही थी .....दो दिन तक इनकी ऐसी ही स्थिति रही ....तीसरे दिन जैसे तैसे  इनको  कुछ होश आया था .....पर भीतर ही भीतर ही   इनकी श्रीराधाबल्लभ लाल से प्रीति और प्रगाढ़ हो गयी थी ।

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हम जड़ राज्य में रहते हैं इसलिये चिन्मय राज्य के बारे में  सोच नही पाते .....चिन्मय राज्य में जड़ जैसा कुछ है ही नही ....वहाँ तो सब चैतन्य है ....सब चैतन्य । 

राधाबल्लभ घेरा में नित्य प्रवचन होता था  राधाबल्लभीय वाणियों पर ....एक गोस्वामी जी  “हित चौरासी”  पर बोल रहे थे ......रसिक लोग सुन रहे थे ।

श्रीजी  अत्यन्त सुन्दरी हैं .....श्याम सुन्दर उन्हें निरन्तर निहारते हुए भी अघाते नही हैं .....युगों युगों से निहार रहे हैं ...ये चन्द्र और सूरज कितनी बार मिटे और बनें हैं  पर श्याम सुन्दर निहार ही रहे हैं ....किन्तु इतना निहारते हुये भी ये अघाते नही हैं ।

क्यों प्यारी जू !  आपके नेत्रों से ये अश्रु बिन्दु क्यों ?   श्रीजी के नेत्रों से  अश्रु का एक बूँद गिरा .....उसे श्याम सुन्दर ने अपनी हथेली में रख लिया ।    

प्यारे !   तुम कभी छोड़ोगे तो नही ?  ये कहते हुये श्याम सुन्दर के हृदय से लग गयीं थीं श्रीजी ।

पर ऐसा क्यों कह रही हो आप ?   इसका कोई उत्तर नही था श्रीजी के पास .....क्यों की प्रेम में  ऐसे विचार आते जाते रहते हैं ...अज्ञात  से प्रेमी डरा रहता है ....कहीं वियोग न हो जाये ।

छेदा लाल की पत्नी  सुन रही हैं  हित चौरासी की चर्चा ....”कोई जड़ नही है निकुँज में ...सब चैतन्य है “.....तभी  छेदालाल की पत्नी भाव जगत में चली गयीं ..उन्हें कुछ भान नही है ....वो उस भाव जगत में देख रही हैं .....श्यामसुन्दर ने अपनी हथेली में रखे श्रीजी के अश्रुओं को   छेदालाल की पत्नी की ओर फेंका ....ओह !  वो अश्रु  उदर में प्रविष्ट हो गया ....छेदा लाल की पत्नी भाव विभोर हो गयीं ....वो कुछ भी समझने की स्थिति में नही थी ...वो बस अत्यन्त कातर होकर श्रीजी को पुकारने लगीं .....और उसी से  समय आने पर  “भोरी सखी” का जन्म हुआ था ।   

ये पुरुष थे ......पर सखी भाव की उच्चावस्था के कारण   इन्हें “सखी”ही कहा गया ।


“मैं भोरी  मेरी भोरी किशोरी ।
मैं भोरी सी विनती लाई , तुम रीझन में भोरी ।।
छोटे मुख बड़ विनय लाड़ली, विहँसि वेगि पुजवौ री ।
भोरी स्वामिनी  भोरी  चेरी , नातो नेह भलौ री ।
“भोरी हित” हरिवंश कृपा बल , सत सम्बन्ध जुरौ री ।।”

रोना ,  इतना रोना भी क्या सम्भव है ?    जी , सब सम्भव है ...प्रेम में सब सम्भव है ....असम्भव तो वहाँ है जहां प्रेम की पीर जागी नही है ...जब ये पीर उठती है .....तब ये सब कुछ करवा देती है ...रात की नींद ग़ायब ....दिन में चैन नही ....प्रेम के लिए पहाड़ों को लांघ जायें ....सागर में कूद जायें ...महाप्रभु श्रीचैतन्य  कूदे तो थे  जगन्नाथ पुरी के सागर में ....उन्हें वो नीला समुद्र  श्रीकृष्ण की याद दिला रहा था .....बस  यही भावना जब घनी हो उठी तो श्रीकृष्ण सागर के रूप में ही मुस्कुरा दिये ....फिर क्या था ....कूद गये श्रीचैतन्य  महाप्रभु । 

पर  इतना रोना ?      हाँ  रात रात भर लोग रोते हैं ...खूब रोते हैं ....पर इसकी क़ीमत क्या ?    भोरी सखी का यहाँ गायन इसलिये हो रहा है कि ये   अपनी स्वामिनी श्रीराधिका जु के लिए रोई हैं ....रोना बड़ी बात नही है ....पर किसके लिए रो रहे हो !     नेति नेति   कहते हुये थकते नही है जो वेद ....ये  उन्हीं वेदों का  प्रतिपाद्य विषय है - श्रीकृष्ण ...और उन्हीं श्रीकृष्ण की आह्लाद हैं  श्रीराधा ।   अजी , श्रीकृष्ण की आत्मा ही तो हैं ये  श्रीराधा । ये भोरी सखी उन्हीं के लिए रोती है .....पर ......आप किसके लिये रोते हैं ?  

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श्रीधाम वृन्दावन से  मध्यप्रदेश  छेदालाल अपनी पत्नी को लेकर लौट आये थे ...सगर्भा  हो गयीं थीं  ...मधुर और शुभ स्वप्न आते थे  छेदालाल की पत्नी को ....पर एक दिक्कत शुरू हो गयी इन दिनों  ...इनको रोना बहुत आता ...कोई  इनके पास  दुखी होता तो उनका दुःख देखकर ही इन्हें  रोना आजाता ....समय बीतता गया ....सम्वत् 1947  आषाढ़ मास की कृष्णा षष्ठी को  छेदालाल के यहाँ  एक पुत्र ने जन्म लिया था ।   उस दिन बहुत वर्षा हुई .....दो वर्ष से इस क्षेत्र ने वर्षा देखी ही नही थी ....अकाल सा पड़ रहा था ....पर ये क्या था ......भक्त का जब जन्म होता है ...तब चारों दिशाओं में मंगल ही मंगल छा जाता है , यही हुआ ....ज़मींदार थे छेदालाल ....खूब लुटाया .....गाँव वालों के साथ साथ ब्राह्मणों को भी खूब दान दक्षिणा दिया .....और पुत्र का नाम रखा  भोलानाथ ।     कहते हैं पूरे दो महीने तक सूर्य नारायण के दर्शन नही हुये थे ...वर्षा इतनी हुयी कि  भूमि झूम उठी ...वृक्ष लहरा रहे थे .......कृषक के लिए ये शुभ था ...अरे !  कृषक के लिए जो शुभ होगा वह सम्पूर्ण जनमानस के लिए भी तो होगा ही ना ।

नही नही , बालक एक ही नही हुए .....
कुछ समय बाद एक और बालक हुआ ....इनका नाम रखा शम्भुनाथ ।

भोला नाथ को  कुछ प्रिय नही लगता था ...इनके गाँव में श्रीराधाकृष्ण का एक मन्दिर था उस मन्दिर में जाने के लिए ये  बालक भोला रोता रहता .......और तब तक रोता जब तक इसकी माता वहाँ न ले जाये .....और वहाँ जाते ही  ये  दौड़ता  श्रीविग्रह को छूने के लिये ....पुजारी मना करते तो फिर ये रोता ....खूब रोता ।    पुजारी  बालक को गोद में लेकर  विग्रह छुवाते ....तो ये  विग्रह के नेत्रों को छूता  कपोल को ...अधरों को ....फिर हँसता ...खिलखिलाता ।    

अब भोला नाथ ग्यारह वर्ष का हो गया था ,  समय की तो अपनी गति है ही ना ।

पर  एक दिन ........

ऐ लड़के !    कौन है तू ?   कहाँ से आया है ?     

सिपाही आगये थे  और  लाठी फटकार कर भोला नाथ से पूछ रहे थे ।

नरसिंह पुर जिले का घोर जंगल प्रसिद्ध था ....भोला नाथ  को  गुरु की तलाश थी ....किसी ने कह दिया था कि गुरु बिना भगवान थोड़े ही मिलते हैं ....और बात सही भी थी ।    भोला नाथ को भगवान को पाने की जिद्द सवार ....और वो भगवान मिलने वाले थे  गुरु के माध्यम से । 

गुरु कहाँ मिलते हैं ?    “भोला” नाम ही है  तो “भोला” ही था ये ...अपने मित्रों से पूछा ।

मित्र भी तो बालक ही हैं ....कह दिये गुरु यानि महात्मा ,  अब महात्मा तो जंगल में ही मिलेंगे ।

“भोला !  गुरु जंगल में मिलेंगे” ...बस  फिर क्या था ...”सुन ! जंगल भी घोर जंगल  वहाँ सन्त ऋषि महात्मा बहुत हैं”......दूसरे दिन ही घर से भाग गया था भोला  गुरु को खोजने ....जंगल में जाकर बैठा था ....ध्यान में तल्लीन हो गया ...तभी किसी ने कठोर आवाज में पूछा ।

ऐ लड़के !  कहाँ से आया है तू ?   सिपाही  थे ।   

वन किसी के अधिकार में नही होता यहाँ तो कोई भी तप आदि कर सकता है ...फिर मुझे क्यों नही ...मैं तपस्या करने आया हूँ ...निर्भीक होकर भोला कह रहा था ।

पर सिपाहियों ने सरलता से पूछा ...और भोला को उसके बताए  ठिकाने पर छुड़वा दिया ।

भोला की माता का रो रोकर बुरा हाल था ...उनके पिता  दो दिन से परेशान थे ....भाई शम्भूनाथ तो अभी दस वर्ष का ही था ...पर भोला को जब आया हुआ देखा तो माता के मानों निष्प्राण देह में प्राण आगये ।   “ये बालक  नरसिंह पुर के जंगलों में था ...सम्भालकर रखिये इसे  नही तो  कोई बाघ आदि  भोजन कर जाएगा “। सिपाही ये सब समझाकर चले गये थे ।

माता जी अब परेशान रहने लगीं .....क्यों की भोला सामान्य नही था .....ये संसार की बातों को जल्दी सीखता नही था ....इसकी रुचि ही नही थी ....शिक्षा आदि से इसे उचाट होने लगता ....इसे बस ...कोई   “कृष्ण”  कह दे  या इससे भी ज़्यादा प्रसन्नता भोला को तब होती जब कोई “राधा या राधे” कहता .....ये नाम उस क्षेत्र में ज़्यादा प्रचलित नही था .....पर भोला को यही नाम प्रिय था ...इसने स्वयं से ही श्रीराधा , श्रीराधा ... आरम्भ कर दिया था ।    

श्रीराधाकृष्ण मन्दिर में भागवत की कथा होने वाली है  पुजारी जी ने कहा ....बस फिर क्या था भोला सब कुछ छोड़कर मन्दिर की व्यवस्था में ही लग गया .......भागवत कथा में ये मग्न हो जाता ....लोग इसे देखते तो मन ही मन इसे प्रणाम करते ....आँखें बन्दकर के ये भागवत सुनता ...नयनों के कोरों से अश्रु निरन्तर बहते रहते ......भोला , ये नाचता , ये गाता ....ये रोता ....राधा राधा राधा ...इस दिव्य मधुर नाम को भोला ने गाँव वालों के मुख में चढ़ा दिया था ।
इस भागवत कथा ने  भोला के निश्छल भक्ति को और हवा दे दी थी ।

बड़ा होता गया भोला ...युवा हो गया था। ...इसका भाई शम्भु नाथ पढ़ाई पूरी करके  शिवपुरी में अब नौकरी भी कर रहा था ....माता पिता ने भोला को वहीं कुछ दिन घूम  आने को कहा ।

“जहि विधि तोहि प्यारी लागौं ।
तैसी मोहि कीजिये प्यारी , बार बार यह मांगौं ।।
और नही कछु काज काहु सौं, तुम ही सौं अनुरागौं ।
“भोरी” तेरी रीझी लहन कौ, त्रिभुवन तृण सम त्यागौं ।।”

उफ़ !  ये पीर , प्रेम की पीर ....पर रुकिये ? किसी प्रेमी को रोते बिलखते देख किसी निर्णय पर मत पहुँचिये ....ये दुखी है ,  बेचारा रोता रहता है ....ना ,  जिसे प्रेम की पीर ने पकड़ लिया जकड़ लिया वो बेचारा कहाँ है !  बेचारे तो तुम हो ...जो नश्वर के पीछे पगलाये डोलते हो ...कभी पत्नी के लिए आँसु बहाते हो कभी पति के लिए कभी बालकों के लिए ....हाय हाय .....कभी धन के लिए तुम्हारी हाय हाय चालू ही रहती है .....कभी पद के लिए  चीखते और चिल्लाते हो ...इन सबको तुम से कोई मतलब नही है ...न पति न पत्नी , न बेटा न बेटी , न पद , न घर ....किसी को नही ...किसी को नही ।   पर  जिसे तुमसे मतलब है उसके लिए कभी रोये हो ? उस  रसिया के लिये  जो बेचारा तुम्हारे द्वार पर खड़ा है ...युगों युगों से ....दरवाज़े की सांकर खटखटा रहा है ...पर तुम क्यों सुनोगे !  वो तुम्हारी और देखता है ....वो ललचाई आँखों से देखकर सोचता है   मेरे लिए भी रो लो ...एक बार तो रो लो ....वो चिल्लाता है ...पर तुम कहाँ सुनोगे !    वो कहता है इतने क़ीमती आँसु न बहाओ इनके लिये ,  ये स्वार्थी हैं ....पर जीव कहाँ मानता है   देखो आश्चर्य !  

शिवपुरी में वकील थे  भोलानाथ के भाई ...ये उनके यहाँ ही आगये ...अब भोला नाथ को भाव का आवेश आने लगा था ...ये इनके समझ में नही आरहा था ....भाई शम्भुनाथ ने देखा इनके भैया की स्थिति कुछ ज़्यादा ही भावपूर्ण है तो वो इनको शिवपुरी के श्रीगोपाल मन्दिर में ले गये ।

वहाँ जाकर इन्हें बहुत सुखद अनुभूति हुयी ....इस मन्दिर के महाराज जी  पण्डित गोपीलाल जी  श्री राधाबल्लभ सम्प्रदाय के थे .....रसिक उपासना थी ...इसी ने  भोला नाथ का मार्ग प्रशस्त कर दिया ....इनको अब मार्ग दिखाई दे गया ...कैसे चलना है इस रसिक सम्प्रदाय में वो भी इन्हीं से शिक्षा प्राप्त हो गयी ....भोला नाथ ने इन्हीं को अपना गुरु बना लिया  और अपना सर्वस्व इनके चरणों समर्पित कर दिया ......पूर्ण शरणागति ले ली ...पर गुरुदेव  ने आज्ञा दे दी कि  तुम विद्याध्ययन करो .....अभी पढ़ने की आयु है तुम्हारी - पढ़ो ।   

गुरु की आज्ञा !   झोंक दिया अपने को विद्याध्ययन में ....भाई पूरा साथ दे रहा था । 

भोला नाम था ....पर मेधा अद्भुत , स्मरण शक्ति  विलक्षण ....जो एक बार ये पढ़ लेते  उसे फिर दोहराने की आवश्यकता नही पड़ती ।    ये हाई स्कूल  पास करते हुये  ये बड़ी शीघ्रता से शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले गये ....अब ये  बी . ए . की पढ़ाई कर रहे थे । 

सब प्यार करते थे इनको ....एक बार   छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह शिवपुरी आये  तो एक प्रतियोगिता रखी गयी.....निबन्ध की प्रतियोगिता  ....ये राजा साहित्य के प्रेमी थे ....इसलिये विद्यालय प्रशासन ने  छतरपुर नरेश की प्रसन्नता के  लिये इस निबन्ध का आयोजन रखा था ......भगवान श्रीराम के ऊपर सभी छात्रों को एक निबन्ध लिखना था ...और छतरपुर के राजा  इसकी अध्यक्षता कर रहे थे ....दो घण्टे का समय दिया गया था .....पर एक बालक उठा और उसने मात्र दस मिनट में ही निबन्ध सौंप कर  सहजता से  बाहर ग्राउण्ड में जाकर बैठ गया ।  

राजा साहब ने उस निबन्ध को देखना चाहा तो ...तो  वो चकित रह गये थे ...भगवान श्रीराम को प्रेमपूर्ण दर्शाने वाला ये निबन्ध था ...भगवान श्रीराम का मातु वैदेही के साथ प्रेम , वो अनिर्वचनीय था ...धनुष भंग से लेकर ,    विवाह फिर वनवास  रावण वध और  फिर  उत्तर में मातु वैदेही का परित्याग   ये भी  दिव्य प्रेम के कारण ही हुआ था ....”भगवान श्रीराम का प्रेम स्वरूप” ।

इसी निबन्ध ने भोला नाथ की लेखनी को  ऊँचाई दी ......

छतरपुर के राजा इतने प्रभावित हुये भोलेनाथ से कि उन्होंने  छतरपुर में ही चलने का आग्रह किया ...भोला नाथ  भोले तो थे ...ये प्रेम को ही महत्व देते थे ....इसलिये ये भी चल दिये ।

राजा  विश्वनाथ सिंह  भोला नाथ के साथ समय व्यतीत करते ...अपनी समृद्ध पुस्तकालय का अध्यक्ष भोलानाथ को बना दिया था ...पुस्तकालय में भक्ति से सम्बन्धित ग्रन्थ बहुत थे ...भोलानाथ  को यही तो चाहिए था ....वो पढ़ने लगा भक्ति ग्रन्थों को ....उसे रस आरहा था ....अभी तो मुख्य रस बाकी ही था ....भक्ति ग्रन्थों को पढ़ते हुये जब भोला नाथ  रसोपासना में प्रवेश करने लगा और उसके हाथों में आए  श्रीहित चौरासी, श्रीराधासुधानिधि , बयालीस लीला ..गीतगोविन्द ,  आहा !    भोला नाथ के भीतर जो प्रेम की पीर  थी वो उभरने लगी ।   उसे अज्ञात से प्रेम होने लगा .....बचपन में  स्थिति ऐसी इसकी हुई थी ....पर वो बचपन था ...पर बड़े होने के बाद ,  शिक्षा के प्रतिस्पर्धा में उतरा ....उत्तीर्ण  होता गया ....दिन रात एक करके विद्याध्यन करता रहा ....इन सबके चलते उसके हृदय का भाव  कहीं दब गया था ।  पर आज !    भोला नाथ  रसोपासना  के ग्रन्थों को पढ़ते  हुये  “सखी भाव”  पर रुक गये थे.....सखी भाव ,  भोला नाथ के देह में सिहरन सी उठने लगी ....सहचरी !   ये वो भाव है जहां कुछ नही चाहिए ...तुम भी नही ...अद्भुत , अनुपम , अभी तक ये गोपी भाव को सर्वोच्च मान रहा था   पर   वृन्दावन के  रसोपासना ने  एक अद्भुत भाव दे दिया था ...सहचरी भाव।

स्वसुख का पूर्ण त्याग ....तुम हमें भी न मिलो पर जिससे मिलकर तुम्हें अच्छा लगे उससे तुम मिलो ...उससे  मिलकर तुम प्रसन्न रहो ।  विचार करता रहा  श्रीराधासुधानिधि का पढ़ते  हुए भोला नाथ ....गोपियों की कामना ये तो है कि प्यारे ! तुम मुझे आलिंगन करो ....पर सखी भाव इस  को भी स्वसुख  मानती हैं इसलिए इसका भी त्याग है ।  

भोला विद्वान था ,  अब परमविद्वान .....चिन्तन करता ...गहन दृष्टि थी उसकी ......

स्वर्ग लोक  फिर सत्य लोक  फिर ब्रह्मलोक ,  फिर वैकुण्ठ लोक  उसी के आस पास गोलोक और साकेत ...उससे ऊपर  निकुँज .....दिव्य निकुँज ....वो भोला नाथ  भावना में चला जाता निकुँज .....पर वहाँ तो प्रवेश नही है पुरुष का .....भोला नाथ  रुक जाता ।  क्या यहाँ प्रवेश के लिए मुझे भी सखी बनना पड़ेगा !   वो  विचलित सा हुआ ...उसे कुछ समझ में नही आरहा था ....पर पुरुष तो एक मात्र श्रीकृष्ण हैं ....भोला शास्त्र के मर्म को समझने का प्रयास करता है ।

हम समस्त जीव  उसकी सखियाँ ही तो हैं .....भोला आनंदित होता ....पर अभी भी ये “रस” की उपासना से दूर था ....ये पढ़ता ,  इसने रस की उपासना के समस्त ग्रन्थों को पढ़ लिया ...श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय की वाणियाँ , श्रीस्वामी हरिदास जी की वाणियाँ ,  इन सबके साथ श्रीराधाबल्लभ सम्प्रदाय की वाणियों की समालोचना  करने लगा तो  दो दिन दो रात तक ये सोया नही ....पुस्तकालय में ही बैठा रहा ...पढ़ता रहा पढ़ता रहा .....सखी भाव क्या है ?  रसोपासना क्या है ?  रस क्या है ?   रस , रास कैसे बनता है ?  उस रस की प्राप्ति कैसे होगी ?  ऐसे अनन्त प्रश्न उठ ही रहे थे कि  सिर दूखने लगा भोला नाथ का ....ग्रन्थों को रखते हुए उसने अंगड़ाई ली और जैसे ही उसके मुख से निकला ....रा धा ......उसके देह में  कम्पन होने लगा ....वो फिर बोला ...राधा ....उसे बहुत अच्छा लगा ....राधा ...राधा ..........

राजा विश्वनाथ सिंह आये ....और आकर बोले ....भोला !  जो चीज “प्रयास” से नही मिलती वो “प्रसाद” से मिलेगी .....तुम अपने को छोड़ दो उसके हाथों ...बुद्धि का प्रयोग अब बन्द ।
राजा ने हाथ पकड़ कर उठाया  भोला नाथ को .....वो उठा ....अपने कक्ष में गया ....गर्मी है आज ...इसलिए छत में चला गया ...हवा अच्छी है ......सोया भी तो नही था दो दिनों से ये ।
इसे झपकी तुरन्त आगयी ......तभी -  एक सुकुमारी , गौर वदनी ,  चन्द्रानना.....प्रकट हो गयीं थीं ....भोरी सखी ! मेरी प्यारी भोरी !  मन्द हास्य करते हुये वो चली गयीं ।

भोला उठा ....इधर उधर देखा कोई नही है ....नेत्रों से अश्रु बह चले भोला के ....कौन हो ?  बताओ कौन हो ?  वो चिल्लाया .....

श्रीराधा श्रीराधा ..........भोला के हृदय में ये नाम गूंजा ।  

तभी लेखनी चल पड़ी भोला की .........

श्रीराधा इक आस हमारी ।
समरथ तैर चले भव सागर, पोचन को तोहि सोच सदा री ।।
भाग्यवान निज भाग्य सराहत, भाग्य हीन को आस तिहारी ।।
पुण्य करत सो शुभ फल पावत , पतितन को तू पावन  प्यारी ।।
“भोरी” भाग्यहीन अति खोटी, सबल स्वामिनी सिर पर प्यारी ।

ये लिखते हुये हिलकियों से भोला नाथ रोता जा रहा था ।
“सब नातौ मैं तुम सौं मानत ।
इतनी कबहूँ कहौ हंसि तुमहू, हौं कि नहीं मोहि जानत ।
कबहूँ मैं गुन बरनत तुमरे , कबहूँ बिनती ठानत । 
“भोरी” की सुधि तुम्हहूँ करति हौं, निज चेरी करि मानत ।।”

 छतरपुर की पहाडियों में बैठ कर भोला, अब भाव जगत में निकुँज चले जाते ।

***देखो प्यारी !  ये है श्रीवृन्दावन ,   या की शोभा  कितनी दिव्य है ...उधर देखो !  वो मोर ,  नही नही  वा माहुं देखो -   मोर को नृत्य ....वा लतान में कितने फूल खिल रहे हैं .....प्यारी जू !  फूलन के भार सौं लताहू झुकी जाय रही है ।  श्याम सुन्दर बोल रहे हैं ...अपनी प्राण प्रिया को  एकान्त में श्रीवन की शोभा दिखा रहे हैं .....पर ये क्या !  श्रीराधा जी का ध्यान नही है  श्याम सुन्दर की बातों में ....न आज उनकी रुचि है ...वो कुछ  अनमनी सी हैं ...कभी रुक कर  चारों ओर देखती हैं ....फिर  श्याम सुन्दर के साथ चल देती हैं .....पर श्याम सुन्दर अतिप्रसन्न हैं ....उनके मुखमण्डल में वो अति प्रसन्नता आज स्पष्ट दिखाई दे रही है ।   वो छुपाना चाहते हैं पर छुपा नही पा रहे .....अहो !     मैं आपसौं  बतिया रह्यों हूँ  पर आप मेरी बातन में ध्यान न देके ...चारों ओर कहा देख रही हो ?  श्याम सुन्दर ने अब श्रीजी से पूछ ही लिया ।

सखियाँ कहाँ हैं ?     श्रीराधा रानी ने जानना चाहा ।  

श्याम सुन्दर को अब स्पष्ट बात कहनी पड़ी ....”मैंने ही सखियन कूं कहीं ओर भेज दियो ।”

क्यों ?   गम्भीर मुखमुद्रा बनाकर  श्रीजी ने पूछा ।

क्यों की मैं  एकान्त में आप के साथ विहार करनौं चाहूँ  , प्यारी जू !  जा लिये मैंने सखियन कुँ भेज  दियो कहूँ और ....पर प्यारी ! आप चलो ...हम दोनों ही हैं ..आनन्द आय रह्यो है ...चलो ।

श्याम सुन्दर जब  श्रीराधा जी का हाथ पकड़ कर आगे ले चले   तब  श्रीराधिका जी बैठ गयीं वहीं ....उनके नेत्रों से अश्रुधार बहने लगे...ये सब एकाएक हुआ था  इसलिए  श्यामसुन्दर भी समझ नही पाये ...वो बैठ गये  श्रीजी के चरणों में ...और ...क्या हुआ ! प्यारी ! क्यों इतनी अधीर हो रही हो ...

प्रियतम !  हमारी सखियाँ हम से कितना प्रेम करती हैं ...एक क्षण को भी हम से दूर नही रहतीं ....प्यारे ! रात्रि में हम दोनों सो जाते हैं पर वो नही सोतीं ....कुँज के रंध्रन से  सोते हुये हम दोनों को निहारती रहती हैं ....हमें क्या प्रिय है क्या अप्रिय  इसका सावधानी से पालन करती हैं .....हमारे लिए अपने प्राणों को वार कर सेवा में अपने को न्योछावर कर  देती हैं ......ऐसी मेरी प्यारी सखियाँ हैं  उनके बिना मैं कैसे रहूँ !  उनका जब मेरे बिना जीवन नही है तो मेरा भी उनके बिना कैसे जीवन हो सकता है ।

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ये भोला का भाव जगत था ....सत्य था ?  अजी ! परम सत्य  ।   उसकी ये लीला चिन्तन की धारा बह चली थी ...वो निकुँज में था ....ये सब उसके सामने ही हो रहा था .....उसके नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े ....ओह !  “श्याम” से ज़्यादा “स्वामिनी” करुणामयी हैं ...श्याम सुन्दर को सखियों से या जीवों से मतलब नही है ...पर स्वामिनी तो  ....भोला को अब “रसोपासना” स्पष्ट होता जा रहा था ....श्रीजी की कृपादृष्टि  उसपर बरस पड़ी थी ।

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लाड़ली  रोती ही जा रही हैं .....उन्हें सखियाँ चाहिए ....सखियों को लेकर द्रवित हृदया हो गयीं थीं प्रिया जू ....पर ये क्या !  तभी  जितने श्रीवन के  वृक्ष थे उसमें से ही सखियाँ प्रकट हो गयीं .....लताओं से ललिता विशाखा  आदि सब प्रकट हो गयीं ....और हंसते हुये बोलीं ....स्वामिनी ! आपको क्या लगा हम आपसे दूर चली गयीं हैं ....हम तो यहीं थीं ...लताओं के रूप में ...हम कहीं नही जा सकती आपको छोड़कर .....ये कहते हुये सब सखियाँ  अपनी स्वामिनी के चरणों में गिरने लगीं ....तो तुरन्त  स्वामिनी किशोरी जू ने सखियों को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ।

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भोला नाथ  रो रहे हैं ...आहा ! ब्रह्म में करुणा नही है ...करुणा तो उनकी आल्हादिनी में है ..ब्रह्म नीरस है ...सरस तो आल्हादिनी के संग होने पर होता है ....रस ब्रह्म  में जो प्रकट है वो आल्हादिनी के कारण ही है ...तो करुणा दया कृपा सब आल्हादिनी ही हैं....फिर ब्रह्म में क्या है ? कुछ भी तो नही ....भोला नाथ पुकार उठे .....हे स्वामिनी ! हे राधिके ! हे करुणामयी ।

भोला उठो तुम !  

तभी छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह  आगये थे  उनको सूचना मिल गयी थी कि भोला पहाड़ी में जाकर बैठा है और प्रातः से ही गया है ....अब सन्ध्या होने को आयी है ।

कवित्व शक्ति अपूर्व है,  मेधा प्रवल व्यक्तित्व भोला के  प्रतिभा को नरेश समझ गये थे ।

भोला कुछ देर में उठा .....चलो अब भोला ! कल से तुम्हें वकालत की तैयारी करनी है ...

आदेश था नरेश का ...भोला कुछ नही बोले ..अभी तर्क आदि करने की  इच्छा भी नही ....सिर झुकाए निकुँज रस में भिंगे ये बस चल रहे थे । 

“इतनी बात कृपा करि दीजै ।
मिलन चटपटी हिय में लागै , विरह ताप तन छीजै ।

“अब  मोहि  कछु  ऐसी  जान  परै ।
हौं जु पतित सब भाँति अभागी , स्वामिनी निज नही ढ़रनि ढरे ।।
काँपत देह त्रास हिय भारी , अब न चित्त छिन धीर धरै ।
साधन नेम न ठौर ठिकानौ, व्याकुल द्वार पे दीन रटै ।
कहौ कृपा करिके अलबेली , “भोरी” शठ कित जाइ मरै ।।”

भोला !  तुम इतने भावुक क्यों हो रहे हो ....मैं तुम्हें देख रहा हूँ ...तुम्हारे आँखों में अश्रु ही रहते हैं ...अरे ! तुम बुद्धिमान हो तार्किक हो ...फिर इतने भावुक क्यों ?   राजा विश्वनाथ सिंह  महल में आकर भोला को फिर समझा रहे थे  ।  भोला  ने सजल नेत्रों से कहा ....कुछ नही राजन्!  बस  प्रेम पन्थ में चल पडा , प्रेम जब तत्व के रूप में प्रकट हुआ ...तब  उन्माद सा उठ गया ....इतना ही कहा भोला ने ....इससे ज़्यादा कहना  वो चाहता भी नही था ।

तुम्हें वकालत की पढ़ाई करनी है ....ये मेरी आज्ञा है ।   फिर राजा ने  भोला के कन्धे में हाथ रखकर कहा ...तुम श्रेष्ठ वकील बन सकते हो ....तुम्हारे अन्दर मैंने तर्क देखा है ।   पर अब सारे तर्क बह चुके हैं....राजन् !   अब कोई तर्क नही है ...बस स्वीकार है ...भोला नाथ ने कहा । 

पर तुम्हारी प्रतिभा मैं व्यर्थ नही जाने दूँगा तुम्हें वकालत करनी ही पड़ेगी ।  राजा ने फिर कहा ।

हे नरेश !  मैं  अपने गाँव जाना चाहता हूँ ...मेरे  माता पिता वृद्ध हो गये हैं भाई शिवपुरी में रहता है ...मैं एक बार जाकर मिलकर आजाऊँगा ।    

 छतरपुर महाराज  का अपना तो कोई स्वार्थ था नही ......ये तो बहुत भले आदमी थे ...बस इतना ही है कि भोला की प्रतिभा को ये  आगे ले जाना चाहते थे ....इसलिये इनकी जिद्द थी ...पर भोला को कोई अज्ञात अपनी ओर खींच रहा था ...ये कहाँ वकालत करने जाते । 

बहाना बनाकर अपने गाँव आगये ...माता पिता बहुत प्रसन्न हुये ....माता ने आग्रह किया  विशेष आग्रह माता का ये टाल न सके .....आग्रह विवाह का था .....कर लिया विवाह ....सुन्दर सुशील पत्नी मिलीं भोला को .....भोला प्रेमी थे ही  पत्नी से उनके सम्बन्ध प्रेमपूर्ण रहे .....पर  माता जी का देहान्त हो गया ....माता के शोक में पिता जी भी चल बसे ।    भोला  समझ ही नही पा रहा था कि ये एक साथ  कैसे विपदा के पहाड़ टूट गये ।     चलो !  एक वर्ष बाद  इस घर में एक खुशी की आहट तो आयी ....भोला के बालक हो गया ...पुत्र , पुत्रप्राप्ति  भोला को हो गयी थी ।   ये बहुत खुश था ...अपनी पत्नी को बहुत प्यार लुटा रहा था ....अपने पुत्र के ऊपर तो इसने सर्वस्व वार दिया था ...कितना प्रसन्न था ये ,  गाँव में इसने बहुत उत्सव आदि किये पुत्र जन्म की खुशी में ......

पर  “स्वामिनी”  कुछ ओर चाहती थीं ...अपनी “भोरी” को ये पराये  हाथों कैसे जाने देतीं ।

उस दिन बहुत वर्षा हुई गाँव में ...रात में कुछ पता ही नही चला ...एक महाव्याल विषधर   कोटर से आया  और लपलपाती  जीभ से पुत्र और माँ को डस कर चला गया ।

ये क्या हुआ था भोला के साथ ...जगत शून्य हो गया भोला का ...सब कुछ सुन्दर था सब कुछ अच्छा था  फिर ये  कुरूप चित्र किसने खींच दी थी !   कुछ समझ में नही आरहा भोला के ।

भोला का भाई आया और आकर शिवपुरी ले गया ....वो वकालत करता था ..वकील था शम्भुनाथ ....ये वहाँ रहने लगा ....भोला को शम्भुनाथ ने कहा ....भैया !  तुम पढ़ाई क्यों नही कर लेते ?     अब भोला  को छतरपुर के नरेश याद आये ....ये अपने भाई शम्भुनाथ से कहकर छतरपुर फिर आगया ।   पर इन दिनों राजा अस्वस्थ हैं ....भोला ने जाकर राजा को प्रणाम किया ....राजा ने उसे पहचान लिया था इसलिए बहुत खुश हुआ ....भोला ने अपने साथ घटी सारी घटना सुना दी थी ....राजा  बहुत दुखी हुये ....भोला से कहा ...अब क्या तुम मेरी बात मानोगे ? 

आपकी ही बात मानूँगा मैं भगवन्!   भोला ने स्पष्ट कह दिया ।   
तो वकालत करो ...राजा फिर बोले ।

जी , सिर झुकाकर  भोला ने राजा की आज्ञा मान ली ....

और  वहीं पुस्तकालय में वो जाकर बैठ गया .....फिर वही  श्रीराधासुधानिधि ,  हित चौरासी , स्फुटवाणी ...संसार के राग रंग में ये सब ढँक गये थे  अब फिर उभर आए ....”वो प्रेम की पीर”.....ये  ठाकुर और ठकुरानी हैं ....याद रहे -  जिसे अपना मान लेती हैं उसे छोड़ती नही हैं ....फिर ये तो “भोरी सखी” थी ....खींच लिया था अपनी ओर ....इस बार जोर से खींचा था ....अब इधर उधर भटकने की कोई आस नही है भोला की । 

***************

वकालत में फेल करा दिया स्वामिनी जू ने .....जो जो करने कि कोशिश कर रहा था  भोला ...उसी में असफलता इसे मिल रही थी ....यही तो कृपा थी .....श्रीजी  जिसे अपना बना लें  उसे अन्य आश्रयों से हटा देती हैं या उन आश्रयों को ही हटा देंगी ।    पर भोला बहुत प्रसन्न है ....उसने  नरेश को सूचना दी और क्षमा माँगी ...अपने भाई को बता दिया कि मैं  अब तुम लोगों के लायक़ नही रहा ....मुझे मेरा लक्ष्य मिले  यही प्रार्थना करना  , मैं श्रीधाम वृन्दावन जा रहा हूँ ।

“दीजै मोहि वास ब्रज माहीं । 
युगल नाम कौ भजन निरन्तर , और कदम्ब की छाईं।।
बृजवासिन के जूठन टूका, अरु यमुनाकौ पानी ।
रसिकन की सत्संगति दीजै , सुनिवौ रसभरी बानी ।।”

भोला विरह में डूबा ....चल पड़ा था श्रीधाम वृन्दावन की ओर .....कोई साधन नही ...अब साधन की आवश्यकता ही क्या ...श्रीवृन्दावन ....श्रीवृन्दावन ।    श्रीराधा नाम मुख में और दृष्टि श्रीवृन्दावन की ओर ...यही तो श्रेष्ठ साधन था ...और  साध्य भी ।   

“कबहूँ  बढ़ै विरह दिन दूनौ ।
बिनु भरि नयन माधुरी देखे ,  सब जग लागै सूनौ । 
मिलिबौ  हंसिबौ कहिबौ सुनिबौ , चित्त कछू न सुहावै ।
सब सौं जाइ बैठियत न्यारे , बात करत घबरावै ।
कहत सुनत तेरो नाम किशोरी , उमगि नयन भरि आवै ।
लीला ललित विचारत जब जब , हियरा टूटत जावै ।
विष सम लगै विषय सुख जे तौ , मुक्ति स्वर्ग नही चाहै ।
मुँदे नयन पुलक तन पुनि-पुनि,  लै लै नाम कराहै ।
“भोरी” की अभिलाषा इतनी, बार बार सोई माँगे । 
कौन भाग्य सौं कुंवर किशोरी , प्रीत हृदय में जागै !!”

 ओह !  श्रीधाम वृन्दावन में  जब पहुँचा ये भोला ...उन्माद छा गया इसपर ....ये दौड़कर श्रीराधाबल्लभ लाल के दर्शन करके आया ....पर  आया युगलघाट ...यही इसका ठौर था ....या सेवाकुँज था....और काम ?    काम बस रोना ...युगलघाट में  रोने की जो आवाज आती वो इस भोला की ही होती ....या सेवा कुँज में सोहनी करते हुये इसकी हिलकियाँ बंध जातीं ।

कहाँ खाना ?   क्या पहनना ?   
और माँगना प्रिय था नही  क्यों की ....किशोरी जी की सखी माँगेगी ? 

यही ठसक हृदय में ...पर शिवपुरी में रह रहे भाई शम्भुनाथ को  अपने भैया भोला नाथ के प्रति बहुत आदर भाव था ....माता पिता तो अब थे नही  जो भी हैं यही हैं ....भोला नाथ ....इसलिए शिवपुरी से शम्भु नाथ अपने भैया को देखने के लिए श्रीवृन्दावन आगये ...अपने भैया की ऐसी स्थिति देखकर उन्होंने तुरन्त श्रीराधाबल्लभ घेरा में  किराये पर एक कमरा ले दिया ...और मकान मालिक से कह दिया मैं पैसा भेजता रहूँगा ...मेरे भाई को भोजन आदि की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिये ....मकान मालिक खुश हो गया ...और भोला नाथ को कमरे  में बैठाकर  सारी बातें समझाकर शम्भुनाथ शिवपुरी भी चले गये ....पर इन्हें कमरे से और भोजन से कोई प्रयोजन थोड़े ही था ये तो बस अपनी स्वामिनी में पूर्ण समर्पित हो चुके थे  ।  वहीं युगल घाट में जाकर बैठना  यही इन्हें प्रिय था ।

इनकी प्रार्थना यही थी कि - विरह दो ...तुम मिलो न मिलो स्वामिनी !  पर  चित्त मेरा  तुममें ही डूब जाये ...और कुछ समझे नही,  जाने नहीं ...ये प्रार्थना करते भोला ...पर अब ये भोला रह कहाँ गये थे ....ये तो भोरी सखी थे ...भोरी ...और इस भोरी की  स्वामिनी थीं श्रीराधा  ये किसी से कुछ नही कहते ...ये जो भी कहते अपनी स्वामिनी से ....पर इनकी स्वामिनी  सुन नही रही थीं ।

“अब तो प्रत्यक्ष दर्शन करके ही मानूँगी “!    अब ये नई जिद्द पकड़ ली थी भोरी ने । 

भोरी सखी  पुकारती , ये  बिलखती ...हा किशोरी !  कहते हुये जब  अपने कलेजे के पीर को उघारती तब तो कठोर पत्थर भी पिघल जाता ....ओह !    

कैसी हो तुम स्वामिनी !  
तुम्हारे द्वार पर खडी तुम्हारी भोरी चिल्ला रही है और तुम्हें मतलब नही ? 

अरे !  ये क्या माँग रही है  !  ये तो सुन लो ....डरो मत ...कुछ नही चाहिए बस अपने दर्शन दे दो ....एक बार  मेरे सामने आकर पूछ तो लो कि मैं कैसी हूँ ?   ये तुम्हारा कर्तव्य है ....मैं तुम पर आश्रित हूँ ...अपने आश्रित के बारे में कुछ तो सोचो । ये शिकायत थी भोरी सखी की अपनी स्वामिनी से ।

पर  स्वामिनी ने एक ओर लीला की ..........

संसार का एक मात्र आश्रय जो था   भोला का ...उसका भाई शम्भुनाथ ....वो भी चल बसा ...पैसा वही भेजता था मकान मालिक को  जिससे वो भोला को कमरा और भोजन मिला हुआ था ....पर शम्भु नाथ ही स्वर्गवासी हो गये ...पैसा आना बन्द हो गया .....जब पैसा आना बन्द हो गया .....कमरा से निकाल दिया इसे.......अब कहाँ जाए ये भोरी ? 

पर इसे  ये दुःख नही था कि उसका भाई चला गया या कमरे से निकाल दिया ...इसकी  पीर तो वही थी .....वही ...की स्वामिनी दर्शन क्यों नही दे रहीं !  क्या हुआ ?    भोरी दिन भर सेवाकुँज में रहती ....खायेगी क्या अब ये ?     तो  इसने उपाय निकाला ....सेवाकुँज में बन्दरों के लिए लोग चने डालते थे ...बन्दर चने खा जाते और उसका छिलका फेंक देते .....भोरी ने उसी को उठाकर खाना शुरू किया ....ये चने के छिलके खाती ....और रोती रहती ।  

अब तो  श्रीराधा रानी से  भोरी का दुःख देखा नही गया ....ये भी तड़फ उठीं ...दोपहर की वेला थी  गर्मी चरम पर ......युगल घाट में  खड़ी आज भोरी फिर  पुकार मचाने लगी ...रोने और बिलखने लगी ....भूखा पेट ...उस पर ये  रोना ....बिलखना  उफ़ !    श्रीराधाबल्लभ जू  ने  गोसाईं जी को प्रेरणा दी .....और कहा ...आज की राजभोग की थाली  युगल घाट में बैठी भोरी रो रही है ...उसे देकर आओ ।    गोसाईं जी गये ...भोरी  रो रही है ....हिलकियों से रो रही है ।   भोरी !  ले  तेरे लिए श्रीजी ने भोग भिजवाया है , गोसाईं जी ने कहा ।  पर ये क्या ?   भोरी सखी ने  सूजी हुयी आँखों से  गोसाईं जी को देखा फिर उस भोग की थाल पर  गुस्से से उठी ...और  थाल लेकर प्रसाद को यमुना जी में फेंक दिया और चिल्लाती हुई बोली - स्वामिनी को कह देना  - मुझे इन प्रसादों  को देकर वो बहला रही हैं ....पर मैं इस तरह बहलने वाली नही हूँ .....अब तो  भोरी मरेगी या स्वामिनी के प्रत्यक्ष दर्शन करेगी ।     मेरी भी जिद्द है ...मैं भी उन्हीं की सेविका हूँ ....इसलिये उनके दर्शन बिना अब मैं कुछ नही चाहती .....फिर भोरी हंसने लगी .....मुझे प्रसाद देकर टरकाना चाहती थीं ....पर मैं इतनी भोरी भी नही ....मैं सब समझती हूँ ....आप आओ मुझे दर्शन दो ।

इतना कहकर भोरी मूर्छित हो गयी थी ।

“जौ पे जिवावौ  तो ऐसे जियावौ ।
करुणाधाम कृपाल कृपानिधि , सन्मुख मृदु मुसकावौ ।।
मोहन प्राण जीवनधन सरबस , सो मो हृदय समावौ ।
मुदित सम्हारत कच मुख छुटे, कर गहि हृदय जुडावौ ।।
तुम बिन और लखौं नही काहू, दृग छबि में अटकावौ ।
“भोरी” दीन दुखारी श्रीहित , चरणन सुबस बसावौ ।।”

प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है ...पूर्ण होते भी अपूर्णता का भान होता है ...तृप्ति होते भी अतृप्ति बनी रहती है ...भोरी सखी के साथ भी कुछ ऐसा ही था ....कृपा थी स्वामिनी जु की ...पर  जिद्द  थी इस भोरी की भी  कि  श्रीराधारानी के प्रत्यक्ष दर्शन हों ...वो मेरे सामने आएँ और  दर्शन दें ...नही तो ?    भोरी अश्रुप्रवाहित करते हुए हंसती ....”कहौ कृपा करिके अलबेली , भोरी शठ कित जाइ मरे” ।

प्रेम अपना रंग दिखा रहा था .....

तड़फ भोरी की बढ़ती  जा रही थी ...इसे दर्शन चाहिये थे ...जैसे भी हो ...अगर नही दिये दर्शन तो मर जाऊँगी ।   ओह ऐसी प्रतिज्ञा !  पूरा श्रीवृन्दावन  श्रीराधाबल्लभ जी में जाकर प्रार्थना कर रहा था - आप भोरी को दर्शन दें ....नही तो वो मर जाएगी ।    

प्रिया जू ने भी जब सुना कि भोरी ने अब जल भी त्याग दिया है ...वो करुणामयी काँप गयीं ....अन्न न खाये तो बहुत दिन हो गये ...पर आज  उसने जल भी त्याग दिया !  पर  भोरी हंसती है ...कल को वायु का भी त्याग कर दूँगी ....ये क्या कह रही थी  ।   लोगों ने समझाना शुरू किया ....दो दिन हो गये ...जल का भी पूर्ण त्याग ...बस रोना और  पुकारना ।   

श्रीराधाबल्लभ जी के गोसाईं जी आए और आकर  समझाने लगे ....भोरी !  ये प्रेम की रीत नही है ....तू समझती है ...ऐसे हठ मत कर .....उनके सुख में अपना सुख समझना यही प्रेम का सिद्धांत है ...इसलिये तू जिद्द छोड़ दे ....तब भोरी का रुदन और बढ़ गया ....गोसाईं वर्ग हतप्रभ रह गया था ...ये क्या हुआ फिर ?       चुप कराने आये थे पर ये तो और रोने लगी थी  ।

तब भोरी ने कहा ......जीवन भी दो तो ऐसे दो कि  तुम्हारे दर्शन हों ......जिवावौ तो ऐसे ....तुम मुस्कुराओ ....मैं तुम्हें देखूँ !     नित नव रंग तुम्हारे प्रकट होते रहें और मैं इन नयनों के दोनें से रूप रस को भरकर पीती रहूँ .....आहा !    प्यारी ! तुम्हारी भोरी बहुत दुखी है....आओ सम्भालो ...अद्भुत दृश्य था भोरी सीधे ऊपर की ओर देखकर बातें कर रही थीं ....वो श्रीजी को कह रही थी ...वो श्रीजी को पुकार रही थी ....वो रोने लगी ...और रोते रोते मूर्छित ही हो गयी ।

*************

भोरी !   उठ भोरी !    देख मैं आगयी तेरे पास ।  

रात्रि की वेला ...मूर्छित पड़ी है  भोरी....उसके सामने तप्त कांचन गौरांगी खड़ी थीं ।

वो उठी ...उसने देखा ...तुरन्त चरणों में गिर गयी ...नेत्रों से अश्रु बहने लगे भोरी के ...अश्रुओं से चरणों को भिंगो दिया ...अब नही मरेगी ना ?  श्रीजी ने उसके मुखमण्डल में अपने सुकोमल कर रखे ...उसके अश्रुओं को पोंछा ।    नही स्वामिनी !   अब  मुझे मत छोड़ो ...भोरी बिलख उठी....मैं यहाँ नही रहूँगी ...मेरा कोई नही है यहाँ ....मुझे ले चलो ...अपने साथ ही रखो .....मैं  तुम्हारी सेवा करूँगी ...नही आता मुझे कुछ  तो मैं सीख लुंगी अन्य  सखियों से .....पर अब ये भोरी थक गयी है अपने चरणों से इसे दूर मत करो .....फिर  बरसात अश्रुओं की ....फिर ।    वो रोती रही ...श्रीजी से सहन नही हुआ  अब ....”चल !  चल भोरी !  मेरे साथ” ....कहकर  भोरी की बाँह पकड़ निकुँज की ओर चल दीं स्वामिनी .....आहा !  वो नाचती गाती निकुँज में प्रवेश करती है ।

युगलघाट में .....लोगों की भीड़ जुट गयी ....और बात हवा की तरह फैली ...कि वो रोने वाली सखी का शरीर शान्त हो गया ।   पूरा श्रीवृन्दावन रो उठा था  भोरी की याद में ।

प्यारी भोरी सखी की .......जय जय जय ।

प्यारे श्रीराधाबल्लभ लाल जु की ....जय जय जय ।

( भोरी सखी के नाम से वर्तमान में छ सौ पद उपलब्ध हैं ...“प्रेम की पीर नाम से है)

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अग्रअली
 

‘रसिक संप्रदाय’ के प्रवर्तक स्वामी अग्रदास ‘भक्तमाल’ के प्रसिद्ध लेखक नाभादास के गुरु थे। प्रियादास ने आमेर के राजा मानसिंह का इनकी सेवा में उपस्थित होना कहा है। मानसिंह अकबर के समकालीन एवं उसके प्रिय दरबारी थे। अतः अग्रदास का समय सन् 1553 ई० तथा उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। नाभादास ने ‘भक्तमाल’ में इनकी प्रशंसा में एक छप्पय लिखा है, जिसमें इन्होंने बताया है कि अग्रदास सदाचारनिरत भगवत् सेवानुरागी थे, इन्होंने एक पुष्पवाटिका लगायी थी और इससे ये बड़ा अनुराग रखते थे... अपने हाथों ही उसकी देख-रेख करते थे; ये नित्य रामनाम जपा करते थे। ये ‘पयहारी कृष्णदास’ के शिष्य तथा राम के अनन्य भक्त थे। प्रियादास ने इस छप्पय की टीका करते हुए लिखा है कि जब मानसिंह इनसे मिलने गये, तो उन्होंने अपने आने की सूचना देने के लिए नाभादास को स्वामी अग्रदास के पास भेजा। नाभादास ने इन्हें एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ पाया और वे स्वयं भाव-विह्वल होकर वहीं जड़ हो गये। विलंब देख मानसिंह स्वयं बाग में गए और गुरु-शिष्य दोनों की यह स्थिति देखकर आश्चर्यचकित हो गए।

‘रसिक प्रकाश भक्तमाल’ में जीवाराम ने इन्हें रसिकों का संगम तथा ‘रसिक भाव’ की भक्ति का प्रचारक कहा है। उनके अनुसार इनकी रचनाओं में वाल्मीकि जैसी मधुरता थी। रैवासा (राजस्थान) में इन्होंने जानकीवल्लभ की रहस्योपासना की थी, इनको लोग ‘जनकलली की अग्रसहचरी’ कहा करते थे। प्रिय से मिलने हेतु ही इन्होंने एक पुष्पवाटिका लगायी थी। इन्हें ‘चंद्रकला सखी’ का अवतार भी कहा जाता है। इन्होंने यथेच्छ ध्यान-रस का पान किया था। ‘भक्तमाल’ के टीकाकार श्री वासुदेवदास के अनुसार ये शील के आचार्य थे। ज्ञान को मिटाकर ‘माधुर्यभाव’ इन्हीं का चलाया हुआ है, ये बारहों महीने रास किया करते थे। भक्ति, रसिकता, दंपत्ति-विलास और रामसागर की ये नौका थे। इन्होंने कील्हदास की आज्ञा से ही ‘रेवासा’ को अपना केंद्र बनाया था। यहीं इन्होंने ‘लली लाल’ का मंदिर बनवाया और अनेक कुंजों की रचना की। अनेक पाकशालाएँ भी इन्होंने बनवायीं। रास के लिए अनेक नाटक-मंडलियों की इन्होंने स्थापना की।

अग्रदास के प्रमुख शिष्यों में जंगी, प्रयागदास, पूरनदास, बनवारीदास, नरसिंहदास, भगवानदास, दिवाकर, जगतदास, जगन्नाथदास, खेमदास खींची, धर्मदास आदि का नाम लिया जाता है। नाभादास तो इनके प्रिय शिष्य थे ही। अग्रदास की गुरु परंपरा यों हैं: रामानंद, अनंतानंद, कृष्णदास पयहारी और अग्रदास। रसिक संप्रदाय में इन्हें ‘अग्रअली’ के नाम से भी जाना जाता है इनके प्रमुख ग्रंथ हैं- ‘ध्यानमंजरी या राम ध्यानमंजरी’‘कुंडलियाँ या हितोपदेश उपषाखाँ बावनी’‘शृंगार रससागर’, और (संस्कृत में) ‘अष्टयाम’। इनमें ‘ध्यानमंजरी’ का प्रकाशन सन् 1922 में वेंकटेश्वर प्रेस बंबई तथा सन् 1940 में मणिरामजी की छावनी अयोध्या से हुआ। ‘अग्र ग्रंथावली’ प्रथम खंड में कुंडलियाँ का प्रकाशन महात्मा राजकिशोरी शरण ने अयोध्या से सन् 1935 ई. में किया। ‘अष्टयाम’ का प्रकाशन रामकृष्णदास उत्श्रसवी ने अयोध्या से 1936 ई. में किया। ‘शृंगार रससागर’ अप्रकाशित एवं अप्राप्य ग्रंथ है। ‘अष्टयाम’ में राम की अष्टयाम उपासना का विस्तृत वर्णन है। ‘कुंडलियाँ’ में नीति और उपदेश से संबंधित छंद हैं। ‘ध्यानमंजरी’ में राम के ध्यान का वर्णन है। अग्रदास का विशेष महत्त्व रामभक्ति में माधुर्य भाव के प्रवर्तक के रूप में है। नाभादास इन्हीं के शिष्य थे, जिन्होंने मध्ययुग के भक्तों की प्रमुख विशेषताओं पर बड़े प्रामाणिक ढंग से लिखा है। सांप्रदायिक दृष्टि से अग्रदास द्वारा स्थापित पीठ वैष्णवों की अनेक शाखाओं का मूल स्थान मानी जाती है। आगे जाकर अकेले रैवासा से 11 गद्दियाँ स्थापित हुईं।

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हित हरिवंश
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक ग्राम है देववन, जहाँ  श्री तपन मिश्र के पुत्र, ज्योतिष के परम विद्वान्, यजुर्वेदीय, कश्यप गोत्रीय, गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास मिश्र जी निवास करते थे । 
व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और इस विद्या के द्वारा उन्होंने प्रचुर संपत्ति प्राप्ति की थी । धीरे-धीरे उनकी ख्याति तत्कालीन पृथ्वीपति के कानों तक पहुँची और उसने बहुत आदर सहित व्यास मिश्र को बुला भेजा । व्यास मिश्र बादशाह से चार श्रीफल लेकर मिले । बादशाह उनसे बातचीत करके उनके गुणों पर मुग्ध हो गया और उनको 'चार हजारी की निधि' देकर सदैव अपने साथ रखने लगा । व्यास मिश्र की समृद्धि का अब कोई ठिकाना नहीं रहा और वे राजसी ठाट-बाट से रहने लगे ।
व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में एक ही प्रबल अभाव था । वे निस्संतान थे । इस अभाव के कारण वे एवं उनकी पत्नी तारारानी सदैव उदास रहते थे । व्यास मिश्र जी बारह भाई थे जिनमें एक नृसिंहाश्रम जी विरक्त थे । नृसिंहाश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे, एवं लोक में उनकी सिद्धता की अनेक कथायें प्रचलित थीं । विरक्त होते हुए भी इनका व्यास जी से स्नेह था और कभी-कभी यह उनसे मिलने आया करते थे । एक बार मिश्र-दंपति को समृद्धि में भी उदास देख कर उन्होंने इसका कारण पूछा । व्यास मिश्र ने अपनी संतान हीनता को उदासी का कारण बताया और नृसिंहाश्रम जी के सामने 'परम भागवत रसिक अनन्य' पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र अभिलाषा प्रगट की । नृसिंहाश्रम जी ने उत्तर दिया "भाई, तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो । तुमको अपने जन्माक्षरों से अपने भाग्य की गति को समझ लेना चाहिये और संतोष-पूर्ण जीवनयापन करना चाहिये ।"
यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए, किन्तु उनकी पत्नी ने दृढ़ता-पूर्वक पूछा "यदि सब कुछ भाग्य का ही किया होता है, यदि विधि का बनाया विधान ही सत्य है, तो इसमें आपकी महिमा क्या रही ?" इस बार नृसिंहाश्रम जी उत्तर न दे सके और विचारमग्न होकर वहाँ से चले गये ।
एकान्त वन में जाकर उन्होंने अपने इष्ट का आराधन किया और उनसे व्यास मिश्र की मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की । रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने उनको सन्देश दिया कि "तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिये स्वयं हरि अपनी वंशी सहित व्यास मिश्र के घर में प्रगट होंगे ।" नृसिंहाश्रम जी ने यह सन्देश व्यास मिश्र को सुना दिया और इसको सुनकर मिश्र-दम्पति के आनन्द का ठिकाना नही रहा ।
 
जन्म :
बादशाह व्यास मिश्र जी को सर्वत्र अपने साथ तो रखता ही था । श्री हित हरिवंश के जन्म के समय भी व्यास मिश्र अपनी पत्नी-सहित बादशाह के साथ थे और ब्रजभूमि में ठहरे थे । वहीं मथुरा से 5 मील दूर 'बाद' नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी सोमवार सम्वत 1559 में अरुणोदय काल में श्रीहित हरिवंश का जन्म हुआ । महापुरुषों के साथ साधारणतया जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है, वह श्री हित हरिवंश के जन्म के साथ भी हुई और सब लोगों में अनायास धार्मिक रुचि, पारस्परिक प्रीति एवं सुख-शान्ति का संचार हो गया । ब्रज के वन हरे-भरे हो गए, लताओं में पुष्प खिलने लगे, सूखे सरोवर जल से भर गए, वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गयी, आकाश में बिजली चमकने लगी, हलकी-हलकी बारिश की बूंदे गिरने लगी, वातावरण सुहावना हो गया, ब्रजवासियों के ह्रदय अकस्मात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए, पक्षीगण मधुर कलरव करने लगे, मोर नृत्य करने लगे । 
 
श्री राधा सुधा निधि जी का प्राकट्य :
जब श्री हिताचार्य 6 मास के थे तब उनके मुख से संस्कृत के श्लोक उद्धृत होने लगे, जिसे वहां उपस्थित श्री नृसिंहाश्रम जी ने श्रवण किया । वह कोई साधारण श्लोक नहीं थे, अपितु श्री श्यामाश्याम की दिव्य निकुंज लीला से सम्बंधित थे । ऐसा बहुत दिनों तक होता रहा और जब श्लोकों की संख्या 270 पहुंची तो श्री हिताचार्य के मुख से श्लोक उद्धृत होना बंद हो गया । उन समस्त 270 श्लोकों को श्री नृसिंहाश्रम जी ने ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर लिया जिसका नाम "श्री राधासुधानिधि" हुआ ।
 
शैशव क्रीड़ा :
श्री हित हरिवंश के पिता श्री व्यास जी ब्रज दर्शन के उद्देश्य से आये थे । अतः उन्होंने ब्रज में छह महीने निवास कर दिव्य लीला स्थलों के दर्शन किये और देववन चले गये । नामकरण के समय ज्योतिषियों ने बतलाया था कि यह बालक अनेक अद्भुत कर्म करने वाला होगा । उनकी भविष्य वाणी बालक की जन्म कुण्डली पर आधारित थी अतः वह सम्पूर्णतः सत्य भी हुई । बालक हरिवंश के उन शैशव कालीन अनेक चमत्कार पूर्ण कार्यों का वर्णन रसिकजन प्रणीत अनेक चरित्र ग्रन्थों में मिलता है । श्री हिताचार्य समवयस्क कुमारों के साथ साधारण बाल क्रीड़ा करते देखकर ज्ञानू नामक भक्त को ज्योतिषियों की बात पर अविश्वास होने लगा था अतः वह अपना सन्देह दूर करने के उद्देश्य से एक दिन बालक हरिवंश की परीक्षा लेने गया किन्तु उसे श्री हिताचार्य ने अपनी बाल क्रीड़ा में ही श्यामा-श्याम की कुंज केलि के प्रत्यक्ष दर्शन करा दिये और वह देह त्याग कर निकुंज महल में सम्प्रविष्ट हो गया ।  
 
श्री नवरंगीलाल जी का प्राकट्य :
एक दिन रात्रि में हित हरिवंश को श्रीजी ने आज्ञा दी की "बाग़ में एक कुंआ है जिसमे हमारा एक द्विभुज स्वरुप है जो कर में बांसुरी लिए हुए हैं, उन्हें मेरी गादी संग स्थापित कर सेवा करो ।" दूसरे दिन श्री हरिवंश जी कुएँ में कूद पड़े और वहाँ से श्याम वर्ण द्विभुज मुरलीधारी एक श्री विग्रह निकालकर ले आये । उन्होंने उस विग्रह को श्रीराधा की गद्दी के साथ एक नव निर्मित मन्दिर में विराजमान करके विधि निषेध शून्य अपनी मौलिक सेवा पद्धति का शुभारम्भ किया । बालक हरिवंश ने उस विग्रह का नाम 'रंगीलाल' रक्खा; जो अद्यापि देववन नगरस्थ मन्दिर में विराजमान है । इस घटना का स्मारक वह कुंआ भी 'हरिवंश चह' के नाम से विख्यात आज भी देखा जाता है । यह घटना तब की है जब श्री हिताचार्य की आयु सात वर्ष की थी ।
 
गुरुवर व मन्त्र प्राप्ति :
रसिकों द्वारा विरचित चरित्र ग्रन्थों व वाणी ग्रन्थों के अनुसार श्री हिताचार्य को उनकी स्वेष्ट श्रीराधा ने मंत्र प्रदान किया था ।
 
एक दिवस सोवत सुख लह्यौ । श्री राधे सुपने में कह्यौ ॥
द्वार तिहारे पीपर जो है । ऊँची डार सबनि में सोहै ॥
तामै अरुन पत्र इक न्यारौ । जामें जुगल मंत्र है भारौ ॥
लेहु मंत्र तुम करहु प्रकाश । रसिकजननि की पुजवहु आश॥
- श्री हित चरित्र, उत्तमदास जी
 
व्यासनंदन व्यासनंदन व्यासनंदन गाइये । 
तिनको पिय नाम सहित मन्त्र दियौ श्री राधे । 
सत-चित-आनंद रूप निगम अगम साधे ॥ 
- श्री हित रूपलाल जी 
 
स्वयं श्री हिताचार्य ने अपनी 'राधासुधानिधि' नामक रचना में अनेक स्थलों पर श्री राधा को अपनी इष्ट के साथ ही गुरु रूप में भी स्मरण किया है । 
 
यस्याः कदापि वसनाञ्चल खेलनोत्थ, धन्याति धन्य पवनेन कृतार्थ मानी ।
योगीन्द्र दुर्गम गतिर्मधुसूदनोपि, तस्या नमोस्तु वृषभानु भुवनोदिशेऽपि ॥
 
रहौ कोउ काहू मनहि दिए। 
मेरे प्राणनाथ श्रीश्यामा शपथ करौं तृण छिये ॥
 
एक दिन श्री हिताचार्य रात्रि में सो रहे थे, तब श्री राधा ने स्वप्न में आदेश दिया "तुम्हारे घर के सामने जो पीपल का वृक्ष है, उसकी सबसे ऊँची डाल पर एक अद्भुत अरुण पत्र है, उसमें हमारा युगल मन्त्र है, उसे ग्रहण कर उसका रसिकजनों में प्रकाश करो ।" 
इस आदेश को पाकर श्री हिताचार्य ने सुबह उस अरुण पत्र को पीपल वृक्ष की डाल से उतार कर उसका रसिकजनों में प्रकाश किया । 
 
श्री हरिवंश जी को श्री राधा के द्वारा "हित" छाप प्रदान करना :
जब श्री हिताचार्य देववन में निवास करते थे, तब श्री राधा ने स्वयं प्रकट होकर श्री हिताचार्य को "हित" छाप प्रदान किया था । तभी से श्री हिताचार्य का नाम हित हरिवंश हो गया । "हित" का अर्थ है प्रेम । 
 
रसमय करे चरित परशंश । जगगुरु विदित श्री हरिवंश ॥
श्री राधा अनुग्रह कियौ । श्री मुख मंत्र निजु कर दियौ ॥
दयिता कृष्ण जिनके इष्ट । पुनि गुरु भाव प्रीति गरिष्ट ॥
दीनी रीझ हित की छाप । ता करि बढ्यौ भक्ति प्रताप ॥
- चाचा वृन्दावन दास जी 
 
उपनयन संस्कार, विद्याध्ययन और विवाह :
आठ वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का उपनयन संस्कार हुआ । इस आयु मे इनकी बुद्धि सामान्य बालकों से कहीं अधिक तीव्र और धारणाशक्ति चमत्कारी थी । इन्होंने अपने स्नेह और सौजन्य से शैशव में ही अपने चारो ओर अच्छा-खासा सखा-मण्डल स्थापित कर लिया था । इन बाल-सखाओं के साथ इनकी क्रीडाएँ असाधारण होती थी । प्रायः भगवद्भक्ति के आश्रित ही कोई न कोई खेल यह खेलते थे । ठाकुर जी की सेवा-पूजा करने की ओर भी इनकी नैसर्गिक रुचि थी और इन्होंने महाप्रसाद का माहात्म्य शैशव में ही अपने बाल सखाओं के समक्ष वर्णन किया था । एकादशी व्रत के प्रति इनका विलक्षण भाव इसी आयु में व्यक्त हो गया था । शनै शनै अपनी अनन्य भावना और सेवा-पूजा के कारण इनकी ख्याति समीपवर्ती प्रदेश में हुई और इनके पास रसपिपासुओं  का आगमन होना प्रारम्भ हुआ । इस आयु में इन्होंने जो चमत्कार किए उनका वर्णन साम्प्रदायिक वाणी-ग्रंथों में भरा पड़ा है ।
 
सोलह वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का विवाह रुक्मिणी देवी के साथ सम्पन्न हुआ । गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी इन्होंने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नही किया । गृहस्थाश्रम के समस्त कर्त्तव्यों का पालन करते हुये ये सच्चे रूप में भक्त और सन्त बने रहे । इस जीवन के प्रति इनके मन मे न तो वैराग्य भावना थी और न इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही ये रखते थे । इनका दाम्पत्य-जीवन सुखी-सम्पन्न और आदर्श था । सर्व प्रकार के ऐश्वर्य एवं भोगविलास की सामग्री इनके पास थी किन्तु इनकी भावना में उसके लिये किसी प्रकार की आसक्ति न होने से उसको लेकर ये कभी व्यग्र, विचलित या लिप्त न होते थे । 
श्रीमती रुक्मिणी देवी से श्री हिताचार्य के एक पुत्री और तीन पुत्र उत्पन्न हुए । ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचंद्रजी स० 1585, द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्रजी संवत् 1587, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी सवत् 1588 तथा पुत्री साहिब दे सम्वत् 1589 मे उत्पन्न हुई । श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का 1589 में तथा पिता श्री व्यास मिश्र का निकुंजगमन 1590 सम्वत् में हुआ । माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आाया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्ति-पद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें । उसी समय इनकी ख्याति से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा ने इनको अपने दरबार में बुलाने के लिये सादर निमंत्रण भेजा किन्तु इन्होंने अपने अन्तर्मन में भगवान् की लीलाभूमि का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था इसलिये राजा के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया । और एक श्लोक में यह उत्तर भिजवा दिया कि सृष्टि के आदि से नरेन्द्र-सुरेन्द्र, ब्रह्मा आदि कालग्रसित होते आये हैं अतः हरिचरण में लीन होकर उनका ही ध्यान करना अभीष्ट है ।
 
श्री किशोरी जू की आज्ञा से वृन्दावन प्रस्थान :
बत्तीस वर्षकी आयु में श्रीराधा ने श्री हित हरिवंश को श्री वृन्दावन-वास एवं धर्म-प्रचार की आज्ञा दी ।  इस आज्ञा के प्राप्त होते ही श्री हित जी वृन्दावन चल दिए । उन्होंने चलते समय रुक्मिणी जी से साथ चलने को कहा किन्तु वे साथ न आ सकी ।
देववन से प्रस्थान के बाद मार्ग में इनको श्री राधा के स्वप्न में दर्शन हुये और उन्होने इनसे कहा कि "आगे एक चिरथावल नाम का गाँव तुम्हारे मार्ग में पड़ेगा, उस गांव में यदि कोई ब्राह्मण अपनी दो कन्याओं का तुम से विवाह करना चाहे तो तुम उसे स्वीकार कर लेना । यह विवाह तुम्हारे भक्ति-पथ मे किसी प्रकार का अन्तराय उत्पन्न करने वाला न होगा । इस विवाह के द्वारा तुम दाम्पत्य जीवन का आदर्श प्रतिष्ठित करोगे ।" साथ ही यह भी उस स्वप्न मे उन्हें राधाजी ने कहा कि "मेरा एक विग्रह (राधावल्लभजी के रूप मे) तुम्हे मिलेगा जिसे तुम वृन्दावन मे ले जाकर मंदिर में विधिवत् स्थापित करना ।" ऐसा ही स्वप्न आत्मदेव नामक ब्राह्मण को भी हुआ जो उसी चिरथावल गाँव का रहने वाला था । इस स्वप्न के बाद श्री हरिवंश जी अपने यात्रा पथ में अग्रसर हुये और उस गाँव मे (चिरथावल) पहुँचे जिसमें आत्मदेव नाम का ब्राह्मण रहता था । उसके दो नवयुवती कन्याएँ थी और पूर्व दृष्ट स्वप्न के आधार पर वह श्री हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहा था । उनके आते ही उसने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिये हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार किया । इन कन्यायों के नाम कृष्णदासी और मनोहरीदासी थे । चिरथावल गाँव में कुछ समय तक ठहर कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा प्रारम्भ की और सम्वत् 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे । यहाँ पहुँचने पर मदनटेर नामक स्थान पर विश्राम के लिये डेरा डाला । यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है । वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्माण कर उन्हें स्थापित किया और सेवा प्रारम्भ की । 
 
पञ्चकोसी वृन्दावन का प्रकाश :
श्री हिताचार्य जिस समय वृन्दावन में आये उस समय वह लता पुंजाकार दल-फल और फूलों से परिपूर्ण एक सघन कुंज के रूप में था । यह लता पुंजाकार वृन्दावन शुक पिक-सारस हंस आदि पक्षियों के कलरव से मुखरित और चारों ओर यमुना से समावृत्त था । कहीं-कहीं यमुना तटस्थ ऊँचे टीलों पर यमुना स्नान हेतु आये हुए ब्रजवासीगण से अवश्य दिखाई देते थे । समागत श्री हिताचार्य के द्वारा यह ज्ञात होने पर कि- इस सघन निर्जन वन में हम निवास करेंगे उन सभी ब्रजवासियों को अत्यधिक विस्मय और हार्दिक प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्री हिताचार्य के हाथ में तीर कमान देते हुए कहा
के गुसाईं जी आप तीर चलाइये, आपका तीर जहाँ तक पहुँचेगा वहाँ तक की भूमि आपकी होगी । यह श्री हिताचार्य का मधुर प्रभाव ही था कि इन बटमार वृत्ति वाले ब्रजवासियों के चित्तों का पूर्ण परिवर्तन हो गया और वे पंचकोसी वृन्दावन में श्री हिताचार्य को भूमि प्रदान करने के लिये तैयार हो गये । ब्रजवासियों के कहने पर श्री हिताचार्य नें एक तीर छोड़ा और वह पर्याप्त दूरी पर जाकर गिरा । श्री हिताचार्य ने जहाँ से तीर फेंका, अपना निवासालय उसी स्थान को बनाया और जहाँ पर वह तीर गिरा, कालान्तर में वह स्थान 'तीर घाट' और बाद में 'चीर घाट' के नाम से प्रसिद्ध हो गया । 
श्री हिताचार्य के दिव्य स्वरूप पर मुग्ध होकर ब्रजवासी दर्शनार्थ आने लगे और शीघ्र ही समीपवर्ती गाँवो में इनके आगमन का समाचार फैल गया ।
जब श्री हिताचार्य वृन्दावन आये तब उस समय वृन्दावन घनघोर जंगल था । वहां एक नरवाहन नाम का डाकू रहता था जिसके भय से वहां दिन में भी कोई न आता । उसने अपनी शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण ब्रज प्रदेश पर अपना अधिकार ही बना लिया था । उसकी इस शक्ति से बड़े-बड़े राजे महाराजे भी डरते थे । यहाँ तक कि दिल्लीश्वर का भी इस नरवाहन पर कोई नियन्त्रण नहीं था । जब नरवाहन को अपने गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात हुआ कि कोई ऐसा चमत्कारी महापुरुष हिंसक जन्तुओं से संसेवित निर्जन वन में आया है; जिसके मधुर प्रभाव से हिंसक जन्तु तथा निर्जन वन के परिसर में बसे बटमारों के मन-बुद्धि और चित्त बदल गये हैं और वे सब उस महापुरुष की सेवा सुश्रुषा में निरत हो गये हैं; तो कुतूहल देखने की दृष्टि से एक दिन नरवाहन भी श्री हिताचार्य के निवास स्थान पर आया । उस समय श्री हिताचार्य अपने शिष्यों तथा ब्रजवासियों से समावृत्त थे और 'नवल' नामक शिष्य के साथ कुछ आलाप-संलाप कर रहे थे । राजा नरवाहन भी श्री हिताचार्य के मधुर प्रभाव से अछूता न रह सका । वार्तालाप सुनकर उसे अपनी वृत्ति पर बहुत खेद हुआ । उसने अपना हार्दिक दुख प्रकट करते हुए श्री हिताचार्य से स्वयं को शरण में लेने की प्रार्थना की ।
श्री हिताचार्य ने उसकी निष्कपट वाणी सुनकर मन्त्रदान के साथ-साथ उपदेश भी दिये जिससे उसके जीवन का आमूलचूल परिवर्तन हो गया । नरवाहन जैसे खूँखार डाकू के जीवन के इस परिवर्तन से पंचकोसी वृन्दावन में निवास करना सबके लिए सुगम हो गया । फलतः बृहद वृन्दावनस्थ ब्रज के नन्दग्राम, बरसाना, राधाकुंड और संकेत आदि ग्रामों में बसे हुए सन्तजन भी श्री हिताचार्य द्वारा प्रकटित इस पंचकोसी रासस्थल वृन्दावन में निवास करने लगे । इससे पूर्व सभी भक्तगण इस पंचकोसी वृन्दावन से अपरिचित ही थे । 
श्री हिताचार्य ने जिस स्थान से तीर फेंका था उसी स्थान पर लता विनिर्मित मन्दिर या पर्ण कुटी में श्री राधाबल्लभलाल जी को विराजमान कर दिया और अपने निवास के लिए किसी प्रकार का निवासालय बनाकर श्री राधाबल्लभलाल जी की अष्टयामी सेवा करने लगे । वे इस पर्ण विनिर्मित मन्दिर में उस समय तक सेवा करते रहे जब तक राजा नरवाहन द्वारा नवीन मन्दिर का निर्माण नहीं हुआ था । राजा नरवाहन ने श्री राधाबल्लभलाल जी का नवीन मन्दिर उसी स्थान पर बनवाया था, जहाँ पर श्री हिताचार्य सपरिवार निवास करते थे । नवीन मन्दिर निर्माण हो जाने पर वि. सं. 1591 की कार्तिक शु तेरस को श्री हिताचार्य ने श्री राधाबल्लभलाल जी को उसमें विराजमान किया और विशेष समारोह के साथ पाटोत्सव मनाया ।
अनेक संतगण गोकुल, गोवर्धन, नंदगाव और बरसाने में निवास करते थे । उस समय गोवर्धन, नंदगाव और बरसाना भी वृहद् वृन्दावन था । श्री हरिवंश जी ने यहाँ अनेक लीला स्थलियों को प्रकट किया और वृन्दावन की सीमा पंचकोसी निर्धारित की । उसी दिन आज भी वृन्दावन प्राकट्य उत्सव मनाया जाता है । 
 
श्री नरवाहन जी पर कृपा करना :
 
रहें भौगाँव नांव नरबाहन साधुसेवी, लूटि लई नाव, जाकी बन्दीखानै दियौ है ।
लौंड़ी आवै दैन कछू, खायवे को, आई दया, अति अकुलाई लै, उपाय यह कियौ है ॥
बोलौ राधवल्लभ औ, लेवौ हरिवंश नाम, पूछै शिष्य नाम कहौ, पूछी नाम लियौ है ।
दई मँगवाय वस्तु, राखियो दुराय बात, आय दास भयौ, कही रीझि पद दियौ है ॥
- श्री भक्तमाल (419)
 
श्री “नरवाहन” जी श्रीहरिवंशजी के शिष्य, परम संतसेवी, "भैगाँव” में रहते थे । ब्रज के एक जमींदार थे और लुटेरे भी । कोई सेठ लाखों की संपदा नाव में भरे यमुना जी के मार्ग से जा रहा था, नरवाहन ने संतसेवा के लिये सब लूटलिया, और उस सेठ को कारागार (बन्दीघर) में डाल दिया । उस वणिक (सेठ) को भोजन देने एक लौंड़ी (टहलनी) कारागार में जाती थी, सेठ की दुर्दशा देखकर उस टहलनी के हृदय में बड़ी दया आई, तब बहुत अकुलाके उसको एक उपाय बताया कि "तुम बड़े ऊँचे स्वर से "राधावल्लभ श्रीहरिवंश !” यह नाम जपो, जब पूछा जाय, तब कहना कि मैं श्रीहरिवंश जी का शिष्य हूँ ।” उस सेठ ने ऐसा ही किया और उच्च स्वर से "राधावल्लभ श्रीहरिवंश” नाम रटने लगा । जब श्रीनरवाहनजी ने यह सुना तो उस सेठ के पास गए और पूछा कि “तुम यह नाम क्यों जपते हो?” उस सेठ ने कहा “मैं श्रीहरिवंशजी का शिष्य हूँ।” राजा नरवाहन बड़े ही गुरु निष्ठ थे । सुनते ही उस सेठ को मुक्त कर दिया और धन देकर कहा कि "श्रीगुसाईंजी से यह बात नहीं कहना ।" वह सेठ शीघ्र ही श्रीवृन्दावन जाकर श्रीहित हरिवंशजी का शिष्य हो गया, और अपना वृत्तान्त भी सुनाया "नरवाहन जी ने लाखों का धन लेकर मुझे कारागार में डाल दिया सो मैंने आपका नाम लिया और झूठ ही कहा कि "आपका शिष् हूँ ।” यह सुनते ही नरवाहन जी ने मुझे मुक्त कर दिया और मेरा सम्पूर्ण धन देकर मुझे घर भेज दिया ।" सुनकर प्रसन्न हो श्री गुसाईंजी ने दोनों को प्रभुपद प्रेम प्रदान किया । श्रीनरवाहन जी की गुरुभक्ति पर रीझकर इन्हीं की छाप देकर श्री हरिवंश जी ने दो पद बनाकर अपनी "चौरासी" ग्रन्थ में रख लिया और श्री नरवाहन जी को नित्य विहार रस का साक्षात्कार करा दिया । 
 
नवीन सिद्धांत एवं स्वेष्ट-सेवा-संस्थापना :
श्री हिताचार्य के परमोपास्य षटैश्वर्य सम्पन्न भगवान नहीं थे; प्रत्युत कोटि ब्रह्म ऐश्वर्य के परकोटे के अन्तर्गत किन्तु उससे दूर पूर्ण माधुर्य मूर्ति, रस-रसिक, अद्वय युगल किशोर थे । भगवान की सेवा पूजा वैदिक विधान द्वारा ही संविधेय होती है किन्तु माधुर्य मूर्ति, 'प्रेम' किंवा 'रस' विग्रह श्री राधावल्लभलाल जी की सेवा प्रीति-विधान से ही सम्भव थी । अतः श्री हिताचार्य ने अपने स्नेह भाजन श्रीराधाबल्लभलाल जी का अहर्निशि समयानुरूप अनेक प्रकार से लाड़-दुलार प्यार किया । इस लाड़-प्यार को ही उन्होंने सात भोग और पाँच आरती वाली विधि निषेध शून्य 'अष्टयामी सेवा' तथा वर्ष में आने वाले ऋतु उत्सवों [वसन्त, होली, होरीडोल, जलबिहार, पावस, झूला और आदि) की 'उत्सविक सेवा' का सुरम्य रूप प्रदान किया । साथ ही अपने आचरणों एवं वाणी द्वारा दैनिक स्वेष्ट की मानसी सेवा करने का भी मूर्त विधान दिया । 
 
सिद्ध केलिस्थलों का प्राकट्य :
श्री हिताचार्य ने ऐसे वृन्दावन का प्रागट्य किया था जोकि भूतलस्थ होते हुए भी 'देवानामथ भक्त-मुक्त' और श्री कृष्ण के लीला परिकर के लिए भी दुर्लक्ष्य था । इसीलिए यह वृन्दावन परम रहस्य संज्ञक बना रहा और बना रहेगा । ऐसे वृन्दावन में होने वाली लीलायें और लीला स्थलों का प्रागट्य भी अनेक दृष्टियों से अनिवार्य था । अतः श्री हिताचार्य ने उन लीला स्थलों का भी प्रागट्य किया जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में नहीं है । इन लीला स्थलों का प्रागट्य ही पंचकोसी वृन्दावन का प्रागट्य है और जो रहस्य रूप वृन्दावन के परिचय प्रदाता तथा प्रत्यक्ष प्रतीक हैं । पंचकोसी वृन्दावन में उनके द्वारा प्रकटित लीला स्थल हैं-रासमण्डल, सेवाकुंज, वंशीवट, धीरसमीर, मानसरोवर, हिंडोल स्थल, शृंगारवट और वन विहार।
 
नमो जयति जमुना वृन्दावन ।
नमो निकुंज कुंज सेवा, हित मण्डल रास, डोल, आनंदघन ॥
नमो पुलिन वंशीवट, रसमय धीरसमीर, सुभग भुव खेलन ।
नमो-नमो जै मानसरोवर सुख उपजावन दंपति के मन ॥
नमो-नमो दुम बेली खग-मृग जे-जे प्रगट गोप्य श्री कानन ।
नमो जयति हित स्वामिनि राधा अलबेली अलबेलौ मोहन ॥
(श्री अलबेलीशरण जी)
 
नित्य रासलीलानुकरण प्रागट्य :
प्रेम किंवा रस मूर्ति श्यामा-श्याम प्रकृतितः रास और विलास प्रिय हैं । रास और विलास प्रियता इनके स्वरूप की प्रकट प्रतीक है । इसीलिए श्री हिताचार्य इन्हें आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि रास-विलास के साथ यह जोरी सदा विराजमान रहे -
 
नव निकुंज अभिराम श्याम सँग नीको बन्यो है समाज । 
जै श्री हित हरिवंश विलास रास जुत जोरी अविचल राजु ॥
 
राधाकिंकरीगण इस रास-रस का पान नेत्र- चक्षुओं द्वारा किया करती हैं । राधाकिंकरी भावानुभावितहृदय रसिकों को भी प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा इस रास-विलास का रसास्वाद निरन्तर मिल सके इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्री हिताचार्य ने प्रेम मूर्ति श्यामाश्याम की इस नित्य रासलीला के अनुकरण का प्रागट्य किया । यह रासलीलानुकरण वृंदावन में होने वाले उस नाद्यन्त नित्यरास का अनुकरण था जो मुक्तजनों, भक्तजनों और गोविन्द प्रिय परिकर से सर्वथा अलक्षित है । यह भागवत वर्णित द्वापरान्त में होने वाले महारास से भिन्न उस नित्यरास का अनुकरण था जिसे केवल राधा-प्रिय किंकरीगण ही देखा करती हैं । इस रासलीलानुकरण का शुभारंभ श्री हिताचार्य ने वि. से. 1592 के लगभग पंचकोसी वृन्दावनस्थ चैन घाट [वर्तमान नाम गोविन्द घाट) में विनिर्मित रास मण्डल पर ब्रजवासी बालकों को श्यामा-श्याम व सहचरियों के वेष से सुसज्जित करके किया था । 
इसी रासमण्डल में एक समय महारास के मध्य श्री राधा के चरणों की नूपुर टूट गयी थी और वहां उपस्थित श्री हरिराम व्यास जी ने अपने यज्ञोपवीत से नूपुर गूँथ कर श्री प्रिया जी के चरणों में धारण कराया था । 
 
शिष्य गण :
रसिकाचार्य गो. हित हरिवंश जी के अनेक शिष्य हुए, उनमें से भगवत मुदित जी द्वारा रचित 'रसिकअनन्यमाल' में वर्णित शिष्यों का नामोल्लेख किया जाता है 
 
इन उल्लिखित रसिकों में से श्री नरवाहन, हरिरामव्यास, छबीलेदास, नाहरमल, बीठलदास, मोहनदास, नवलदास, हरीदास तुलाधार, हरीदास जी [कर्मठी बाई के ताऊ], परमानन्ददास, प्रबोधानन्द सरस्वती, कर्मठी बाई, सेवक जी, खरगसेन, गंगा, जमुना, पूरनदास, किशोर, सन्तदास, मनोहर, खेम, बालकृष्ण, ज्ञानू, गोपालदास नागर, आदि । 
 
श्री हिताचार्य जू की रचनायें :
 
1: श्रीराधासुधानिधि 
यह एक संस्कृत काव्य है जिसकी श्लोक संख्या 270 है । इस ग्रन्थ में श्री राधाकृष्ण की विभिन्न निकुञ्ज लीलाओं का वर्णन है, संग में अभिलाषा एवं वंदना के श्लोक भी संगृहीत हैं ।  
 
2: श्री यमुनाष्टक
श्री यमुनाष्टक संस्कृत में रचित एक अष्टक है जिसकी श्लोक संख्या 9 है । इसमें श्री यमुना जी का यश एवं उनकी वंदना का वर्णन है । 
 
3: श्री हित चौरासी 
श्री हित चौरासी ब्रजभाषा में एक पद्य रचना है जिसमें 84 पद संकलित हैं । इस ग्रन्थ में श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला का वर्णन है । 
 
4: स्फुट वाणी 
इस ग्रन्थ में ब्रजभाषा में 24 पद संकलित हैं, जिसमें सिद्धांत, आरती, श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला, आदि के पद हैं ।
 
 
लीला संवरण :
जयकृष्ण जी ने श्री हिताचार्य का निकुंज गमन वर्णन करते हुए लिखा है कि -
श्री यमुना जी के तट पर मानसरोवर के निकट भांडीरवट है । कुसुमित ललित लतिकाओं से रमणीय इस वन स्थली में ‘भँवरनी भवन' नामक एक निभृत निकुंज है । इस निकुंज में श्यामा-श्याम रति रस बिहार किया करते हैं । शारदीय पूर्णिमा [आश्विन की पूर्णिमा] की चन्द्र-चन्द्रिका में रति रस बिहार के रसासव से आघूर्णित नयन श्री रसिक युगल झूम रहे थे, घूम रहे थे, उनकी श्री अंग की कान्ति चन्द्र-कान्ति को अत्यधिक कान्त बना रही थी । श्री हिताचार्य को प्रिया जी के अंग की सुगन्ध ने अपनी ओर बलात् आकर्षित किया । परिणामतः वे उस सुगन्ध के आधार से "प्रिया जी ! आप कहाँ हो ? कहाँ हो ?" यह कहते हुए उस वन में घुसते ही चले गये और थोड़ी देर में प्रिया जी की अंग-चन्द्रिका में घुल मिल गये । इस प्रकार से वि. सं. 1609 की आश्विन पूर्णिमा की रात्रि में श्री हित जी लोक-दृष्टि से ओझल हो गये । 
 
दिव्य कमल श्री यमुना कूल । वट भांडीर निकट रस मूल ॥
संतत जहँ भँवरन की भीर । शीतल-मन्द-सुगंध समीर ॥
जहँ बिहरत श्री रवनी-रवन । ताकौ नाम भँवरनी भवन ॥
शरद मास राका उजियारी। पूरन शशि जु प्रकाशित भारी ॥
प्रिया-जौन्ह में यौं मिलि गई । तिहि छिन सहचरि संभ्रम भई ॥
कहत कि कहाँ-कहाँ हो लली । सौंधे के डोरे लगि चली ॥
दृष्टान्तर यौं श्री हरिवंश । मानसरोवर रस के हंस ॥
भँवर भँवरनी में दोउ चलैं । श्री हित जू तिन सँग ही रलैं ॥
सम्वत सोरह सै रु नव, आश्विन पूनौ मास ।
ता दिन श्री हित जग-दृगन, कियौ अप्रगट विलास ॥
 
श्री हरिराम व्यास जी ने हिताचार्य के निकुंज गमन कर जाने के फलस्वरूप वृन्दावन के रसिक समाज की दुर्दशा और
अपनी हार्दिक वेदना का वर्णन किया है -
 
हुतौ रस रसिकन कौ आधार ।
बिनु हरिवंशहि सरस रीति कौ कापै चलिहै भार ॥
को राधा दुलरावै गावै वचन सुनावै चार ।
वृन्दावन की सहज माधुरी कहिहै कौन उदार ॥
पद रचना अब कापै ह्वै है निरस भयौ संसार ।
बड़ौ अभाग अनन्य सभा कौ उठिगौ ठाठ सिंगार ॥
जिन बिनु दिन छिन सत युग बीतत सहज रूप आगार ।
'व्यास' एक कुल कुमुद बन्धु बिनु उड़गन जूठौ थार ॥