छाँड़िदैं मानिनी मान मन धरिबौ।
प्रनत सुंदर सुघर प्रानवल्लभ नवल,
वचन आधीन सौं इतौ कत करिबौं। ।
जपत हरि विवस तव नाम प्रतिपद विमल,
मनसि तव ध्यान ते निमिष नहिं टरिबौ।
घटति पलु पलु सुभग सरद की जामीनी,
भामिनी सरस अनुराग दिसि ढरिबौ।।
हौं जु कहति निजु बात सुनो मनि सखि,
सुमुखि बिनु काज घन विरह दुख भरी वै।
मिलत हरिवंश हित’ कुंज किसलय सयन,
करत कल केलि सुख सिंधु में तिरिबौ।।83॥