रचनाकार/कवि/भक्त: हित हरिवंश ( राधावल्लभ सम्प्रदाय )
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक ग्राम है देववन, जहाँ  श्री तपन मिश्र के पुत्र, ज्योतिष के परम विद्वान्, यजुर्वेदीय, कश्यप गोत्रीय, गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास मिश्र जी निवास करते थे । 
व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और इस विद्या के द्वारा उन्होंने प्रचुर संपत्ति प्राप्ति की थी । धीरे-धीरे उनकी ख्याति तत्कालीन पृथ्वीपति के कानों तक पहुँची और उसने बहुत आदर सहित व्यास मिश्र को बुला भेजा । व्यास मिश्र बादशाह से चार श्रीफल लेकर मिले । बादशाह उनसे बातचीत करके उनके गुणों पर मुग्ध हो गया और उनको 'चार हजारी की निधि' देकर सदैव अपने साथ रखने लगा । व्यास मिश्र की समृद्धि का अब कोई ठिकाना नहीं रहा और वे राजसी ठाट-बाट से रहने लगे ।
व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में एक ही प्रबल अभाव था । वे निस्संतान थे । इस अभाव के कारण वे एवं उनकी पत्नी तारारानी सदैव उदास रहते थे । व्यास मिश्र जी बारह भाई थे जिनमें एक नृसिंहाश्रम जी विरक्त थे । नृसिंहाश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे, एवं लोक में उनकी सिद्धता की अनेक कथायें प्रचलित थीं । विरक्त होते हुए भी इनका व्यास जी से स्नेह था और कभी-कभी यह उनसे मिलने आया करते थे । एक बार मिश्र-दंपति को समृद्धि में भी उदास देख कर उन्होंने इसका कारण पूछा । व्यास मिश्र ने अपनी संतान हीनता को उदासी का कारण बताया और नृसिंहाश्रम जी के सामने 'परम भागवत रसिक अनन्य' पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र अभिलाषा प्रगट की । नृसिंहाश्रम जी ने उत्तर दिया "भाई, तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो । तुमको अपने जन्माक्षरों से अपने भाग्य की गति को समझ लेना चाहिये और संतोष-पूर्ण जीवनयापन करना चाहिये ।"
यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए, किन्तु उनकी पत्नी ने दृढ़ता-पूर्वक पूछा "यदि सब कुछ भाग्य का ही किया होता है, यदि विधि का बनाया विधान ही सत्य है, तो इसमें आपकी महिमा क्या रही ?" इस बार नृसिंहाश्रम जी उत्तर न दे सके और विचारमग्न होकर वहाँ से चले गये ।
एकान्त वन में जाकर उन्होंने अपने इष्ट का आराधन किया और उनसे व्यास मिश्र की मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की । रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने उनको सन्देश दिया कि "तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिये स्वयं हरि अपनी वंशी सहित व्यास मिश्र के घर में प्रगट होंगे ।" नृसिंहाश्रम जी ने यह सन्देश व्यास मिश्र को सुना दिया और इसको सुनकर मिश्र-दम्पति के आनन्द का ठिकाना नही रहा ।
 
जन्म :
बादशाह व्यास मिश्र जी को सर्वत्र अपने साथ तो रखता ही था । श्री हित हरिवंश के जन्म के समय भी व्यास मिश्र अपनी पत्नी-सहित बादशाह के साथ थे और ब्रजभूमि में ठहरे थे । वहीं मथुरा से 5 मील दूर 'बाद' नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी सोमवार सम्वत 1559 में अरुणोदय काल में श्रीहित हरिवंश का जन्म हुआ । महापुरुषों के साथ साधारणतया जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है, वह श्री हित हरिवंश के जन्म के साथ भी हुई और सब लोगों में अनायास धार्मिक रुचि, पारस्परिक प्रीति एवं सुख-शान्ति का संचार हो गया । ब्रज के वन हरे-भरे हो गए, लताओं में पुष्प खिलने लगे, सूखे सरोवर जल से भर गए, वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गयी, आकाश में बिजली चमकने लगी, हलकी-हलकी बारिश की बूंदे गिरने लगी, वातावरण सुहावना हो गया, ब्रजवासियों के ह्रदय अकस्मात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए, पक्षीगण मधुर कलरव करने लगे, मोर नृत्य करने लगे । 
 
श्री राधा सुधा निधि जी का प्राकट्य :
जब श्री हिताचार्य 6 मास के थे तब उनके मुख से संस्कृत के श्लोक उद्धृत होने लगे, जिसे वहां उपस्थित श्री नृसिंहाश्रम जी ने श्रवण किया । वह कोई साधारण श्लोक नहीं थे, अपितु श्री श्यामाश्याम की दिव्य निकुंज लीला से सम्बंधित थे । ऐसा बहुत दिनों तक होता रहा और जब श्लोकों की संख्या 270 पहुंची तो श्री हिताचार्य के मुख से श्लोक उद्धृत होना बंद हो गया । उन समस्त 270 श्लोकों को श्री नृसिंहाश्रम जी ने ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर लिया जिसका नाम "श्री राधासुधानिधि" हुआ ।
 
शैशव क्रीड़ा :
श्री हित हरिवंश के पिता श्री व्यास जी ब्रज दर्शन के उद्देश्य से आये थे । अतः उन्होंने ब्रज में छह महीने निवास कर दिव्य लीला स्थलों के दर्शन किये और देववन चले गये । नामकरण के समय ज्योतिषियों ने बतलाया था कि यह बालक अनेक अद्भुत कर्म करने वाला होगा । उनकी भविष्य वाणी बालक की जन्म कुण्डली पर आधारित थी अतः वह सम्पूर्णतः सत्य भी हुई । बालक हरिवंश के उन शैशव कालीन अनेक चमत्कार पूर्ण कार्यों का वर्णन रसिकजन प्रणीत अनेक चरित्र ग्रन्थों में मिलता है । श्री हिताचार्य समवयस्क कुमारों के साथ साधारण बाल क्रीड़ा करते देखकर ज्ञानू नामक भक्त को ज्योतिषियों की बात पर अविश्वास होने लगा था अतः वह अपना सन्देह दूर करने के उद्देश्य से एक दिन बालक हरिवंश की परीक्षा लेने गया किन्तु उसे श्री हिताचार्य ने अपनी बाल क्रीड़ा में ही श्यामा-श्याम की कुंज केलि के प्रत्यक्ष दर्शन करा दिये और वह देह त्याग कर निकुंज महल में सम्प्रविष्ट हो गया ।  
 
श्री नवरंगीलाल जी का प्राकट्य :
एक दिन रात्रि में हित हरिवंश को श्रीजी ने आज्ञा दी की "बाग़ में एक कुंआ है जिसमे हमारा एक द्विभुज स्वरुप है जो कर में बांसुरी लिए हुए हैं, उन्हें मेरी गादी संग स्थापित कर सेवा करो ।" दूसरे दिन श्री हरिवंश जी कुएँ में कूद पड़े और वहाँ से श्याम वर्ण द्विभुज मुरलीधारी एक श्री विग्रह निकालकर ले आये । उन्होंने उस विग्रह को श्रीराधा की गद्दी के साथ एक नव निर्मित मन्दिर में विराजमान करके विधि निषेध शून्य अपनी मौलिक सेवा पद्धति का शुभारम्भ किया । बालक हरिवंश ने उस विग्रह का नाम 'रंगीलाल' रक्खा; जो अद्यापि देववन नगरस्थ मन्दिर में विराजमान है । इस घटना का स्मारक वह कुंआ भी 'हरिवंश चह' के नाम से विख्यात आज भी देखा जाता है । यह घटना तब की है जब श्री हिताचार्य की आयु सात वर्ष की थी ।
 
गुरुवर व मन्त्र प्राप्ति :
रसिकों द्वारा विरचित चरित्र ग्रन्थों व वाणी ग्रन्थों के अनुसार श्री हिताचार्य को उनकी स्वेष्ट श्रीराधा ने मंत्र प्रदान किया था ।
 
एक दिवस सोवत सुख लह्यौ । श्री राधे सुपने में कह्यौ ॥
द्वार तिहारे पीपर जो है । ऊँची डार सबनि में सोहै ॥
तामै अरुन पत्र इक न्यारौ । जामें जुगल मंत्र है भारौ ॥
लेहु मंत्र तुम करहु प्रकाश । रसिकजननि की पुजवहु आश॥
- श्री हित चरित्र, उत्तमदास जी
 
व्यासनंदन व्यासनंदन व्यासनंदन गाइये । 
तिनको पिय नाम सहित मन्त्र दियौ श्री राधे । 
सत-चित-आनंद रूप निगम अगम साधे ॥ 
- श्री हित रूपलाल जी 
 
स्वयं श्री हिताचार्य ने अपनी 'राधासुधानिधि' नामक रचना में अनेक स्थलों पर श्री राधा को अपनी इष्ट के साथ ही गुरु रूप में भी स्मरण किया है । 
 
यस्याः कदापि वसनाञ्चल खेलनोत्थ, धन्याति धन्य पवनेन कृतार्थ मानी ।
योगीन्द्र दुर्गम गतिर्मधुसूदनोपि, तस्या नमोस्तु वृषभानु भुवनोदिशेऽपि ॥
 
रहौ कोउ काहू मनहि दिए। 
मेरे प्राणनाथ श्रीश्यामा शपथ करौं तृण छिये ॥
 
एक दिन श्री हिताचार्य रात्रि में सो रहे थे, तब श्री राधा ने स्वप्न में आदेश दिया "तुम्हारे घर के सामने जो पीपल का वृक्ष है, उसकी सबसे ऊँची डाल पर एक अद्भुत अरुण पत्र है, उसमें हमारा युगल मन्त्र है, उसे ग्रहण कर उसका रसिकजनों में प्रकाश करो ।" 
इस आदेश को पाकर श्री हिताचार्य ने सुबह उस अरुण पत्र को पीपल वृक्ष की डाल से उतार कर उसका रसिकजनों में प्रकाश किया । 
 
श्री हरिवंश जी को श्री राधा के द्वारा "हित" छाप प्रदान करना :
जब श्री हिताचार्य देववन में निवास करते थे, तब श्री राधा ने स्वयं प्रकट होकर श्री हिताचार्य को "हित" छाप प्रदान किया था । तभी से श्री हिताचार्य का नाम हित हरिवंश हो गया । "हित" का अर्थ है प्रेम । 
 
रसमय करे चरित परशंश । जगगुरु विदित श्री हरिवंश ॥
श्री राधा अनुग्रह कियौ । श्री मुख मंत्र निजु कर दियौ ॥
दयिता कृष्ण जिनके इष्ट । पुनि गुरु भाव प्रीति गरिष्ट ॥
दीनी रीझ हित की छाप । ता करि बढ्यौ भक्ति प्रताप ॥
- चाचा वृन्दावन दास जी 
 
उपनयन संस्कार, विद्याध्ययन और विवाह :
आठ वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का उपनयन संस्कार हुआ । इस आयु मे इनकी बुद्धि सामान्य बालकों से कहीं अधिक तीव्र और धारणाशक्ति चमत्कारी थी । इन्होंने अपने स्नेह और सौजन्य से शैशव में ही अपने चारो ओर अच्छा-खासा सखा-मण्डल स्थापित कर लिया था । इन बाल-सखाओं के साथ इनकी क्रीडाएँ असाधारण होती थी । प्रायः भगवद्भक्ति के आश्रित ही कोई न कोई खेल यह खेलते थे । ठाकुर जी की सेवा-पूजा करने की ओर भी इनकी नैसर्गिक रुचि थी और इन्होंने महाप्रसाद का माहात्म्य शैशव में ही अपने बाल सखाओं के समक्ष वर्णन किया था । एकादशी व्रत के प्रति इनका विलक्षण भाव इसी आयु में व्यक्त हो गया था । शनै शनै अपनी अनन्य भावना और सेवा-पूजा के कारण इनकी ख्याति समीपवर्ती प्रदेश में हुई और इनके पास रसपिपासुओं  का आगमन होना प्रारम्भ हुआ । इस आयु में इन्होंने जो चमत्कार किए उनका वर्णन साम्प्रदायिक वाणी-ग्रंथों में भरा पड़ा है ।
 
सोलह वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का विवाह रुक्मिणी देवी के साथ सम्पन्न हुआ । गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी इन्होंने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नही किया । गृहस्थाश्रम के समस्त कर्त्तव्यों का पालन करते हुये ये सच्चे रूप में भक्त और सन्त बने रहे । इस जीवन के प्रति इनके मन मे न तो वैराग्य भावना थी और न इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही ये रखते थे । इनका दाम्पत्य-जीवन सुखी-सम्पन्न और आदर्श था । सर्व प्रकार के ऐश्वर्य एवं भोगविलास की सामग्री इनके पास थी किन्तु इनकी भावना में उसके लिये किसी प्रकार की आसक्ति न होने से उसको लेकर ये कभी व्यग्र, विचलित या लिप्त न होते थे । 
श्रीमती रुक्मिणी देवी से श्री हिताचार्य के एक पुत्री और तीन पुत्र उत्पन्न हुए । ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचंद्रजी स० 1585, द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्रजी संवत् 1587, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी सवत् 1588 तथा पुत्री साहिब दे सम्वत् 1589 मे उत्पन्न हुई । श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का 1589 में तथा पिता श्री व्यास मिश्र का निकुंजगमन 1590 सम्वत् में हुआ । माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आाया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्ति-पद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें । उसी समय इनकी ख्याति से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा ने इनको अपने दरबार में बुलाने के लिये सादर निमंत्रण भेजा किन्तु इन्होंने अपने अन्तर्मन में भगवान् की लीलाभूमि का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था इसलिये राजा के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया । और एक श्लोक में यह उत्तर भिजवा दिया कि सृष्टि के आदि से नरेन्द्र-सुरेन्द्र, ब्रह्मा आदि कालग्रसित होते आये हैं अतः हरिचरण में लीन होकर उनका ही ध्यान करना अभीष्ट है ।
 
श्री किशोरी जू की आज्ञा से वृन्दावन प्रस्थान :
बत्तीस वर्षकी आयु में श्रीराधा ने श्री हित हरिवंश को श्री वृन्दावन-वास एवं धर्म-प्रचार की आज्ञा दी ।  इस आज्ञा के प्राप्त होते ही श्री हित जी वृन्दावन चल दिए । उन्होंने चलते समय रुक्मिणी जी से साथ चलने को कहा किन्तु वे साथ न आ सकी ।
देववन से प्रस्थान के बाद मार्ग में इनको श्री राधा के स्वप्न में दर्शन हुये और उन्होने इनसे कहा कि "आगे एक चिरथावल नाम का गाँव तुम्हारे मार्ग में पड़ेगा, उस गांव में यदि कोई ब्राह्मण अपनी दो कन्याओं का तुम से विवाह करना चाहे तो तुम उसे स्वीकार कर लेना । यह विवाह तुम्हारे भक्ति-पथ मे किसी प्रकार का अन्तराय उत्पन्न करने वाला न होगा । इस विवाह के द्वारा तुम दाम्पत्य जीवन का आदर्श प्रतिष्ठित करोगे ।" साथ ही यह भी उस स्वप्न मे उन्हें राधाजी ने कहा कि "मेरा एक विग्रह (राधावल्लभजी के रूप मे) तुम्हे मिलेगा जिसे तुम वृन्दावन मे ले जाकर मंदिर में विधिवत् स्थापित करना ।" ऐसा ही स्वप्न आत्मदेव नामक ब्राह्मण को भी हुआ जो उसी चिरथावल गाँव का रहने वाला था । इस स्वप्न के बाद श्री हरिवंश जी अपने यात्रा पथ में अग्रसर हुये और उस गाँव मे (चिरथावल) पहुँचे जिसमें आत्मदेव नाम का ब्राह्मण रहता था । उसके दो नवयुवती कन्याएँ थी और पूर्व दृष्ट स्वप्न के आधार पर वह श्री हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहा था । उनके आते ही उसने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिये हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार किया । इन कन्यायों के नाम कृष्णदासी और मनोहरीदासी थे । चिरथावल गाँव में कुछ समय तक ठहर कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा प्रारम्भ की और सम्वत् 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे । यहाँ पहुँचने पर मदनटेर नामक स्थान पर विश्राम के लिये डेरा डाला । यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है । वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्माण कर उन्हें स्थापित किया और सेवा प्रारम्भ की । 
 
पञ्चकोसी वृन्दावन का प्रकाश :
श्री हिताचार्य जिस समय वृन्दावन में आये उस समय वह लता पुंजाकार दल-फल और फूलों से परिपूर्ण एक सघन कुंज के रूप में था । यह लता पुंजाकार वृन्दावन शुक पिक-सारस हंस आदि पक्षियों के कलरव से मुखरित और चारों ओर यमुना से समावृत्त था । कहीं-कहीं यमुना तटस्थ ऊँचे टीलों पर यमुना स्नान हेतु आये हुए ब्रजवासीगण से अवश्य दिखाई देते थे । समागत श्री हिताचार्य के द्वारा यह ज्ञात होने पर कि- इस सघन निर्जन वन में हम निवास करेंगे उन सभी ब्रजवासियों को अत्यधिक विस्मय और हार्दिक प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्री हिताचार्य के हाथ में तीर कमान देते हुए कहा
के गुसाईं जी आप तीर चलाइये, आपका तीर जहाँ तक पहुँचेगा वहाँ तक की भूमि आपकी होगी । यह श्री हिताचार्य का मधुर प्रभाव ही था कि इन बटमार वृत्ति वाले ब्रजवासियों के चित्तों का पूर्ण परिवर्तन हो गया और वे पंचकोसी वृन्दावन में श्री हिताचार्य को भूमि प्रदान करने के लिये तैयार हो गये । ब्रजवासियों के कहने पर श्री हिताचार्य नें एक तीर छोड़ा और वह पर्याप्त दूरी पर जाकर गिरा । श्री हिताचार्य ने जहाँ से तीर फेंका, अपना निवासालय उसी स्थान को बनाया और जहाँ पर वह तीर गिरा, कालान्तर में वह स्थान 'तीर घाट' और बाद में 'चीर घाट' के नाम से प्रसिद्ध हो गया । 
श्री हिताचार्य के दिव्य स्वरूप पर मुग्ध होकर ब्रजवासी दर्शनार्थ आने लगे और शीघ्र ही समीपवर्ती गाँवो में इनके आगमन का समाचार फैल गया ।
जब श्री हिताचार्य वृन्दावन आये तब उस समय वृन्दावन घनघोर जंगल था । वहां एक नरवाहन नाम का डाकू रहता था जिसके भय से वहां दिन में भी कोई न आता । उसने अपनी शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण ब्रज प्रदेश पर अपना अधिकार ही बना लिया था । उसकी इस शक्ति से बड़े-बड़े राजे महाराजे भी डरते थे । यहाँ तक कि दिल्लीश्वर का भी इस नरवाहन पर कोई नियन्त्रण नहीं था । जब नरवाहन को अपने गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात हुआ कि कोई ऐसा चमत्कारी महापुरुष हिंसक जन्तुओं से संसेवित निर्जन वन में आया है; जिसके मधुर प्रभाव से हिंसक जन्तु तथा निर्जन वन के परिसर में बसे बटमारों के मन-बुद्धि और चित्त बदल गये हैं और वे सब उस महापुरुष की सेवा सुश्रुषा में निरत हो गये हैं; तो कुतूहल देखने की दृष्टि से एक दिन नरवाहन भी श्री हिताचार्य के निवास स्थान पर आया । उस समय श्री हिताचार्य अपने शिष्यों तथा ब्रजवासियों से समावृत्त थे और 'नवल' नामक शिष्य के साथ कुछ आलाप-संलाप कर रहे थे । राजा नरवाहन भी श्री हिताचार्य के मधुर प्रभाव से अछूता न रह सका । वार्तालाप सुनकर उसे अपनी वृत्ति पर बहुत खेद हुआ । उसने अपना हार्दिक दुख प्रकट करते हुए श्री हिताचार्य से स्वयं को शरण में लेने की प्रार्थना की ।
श्री हिताचार्य ने उसकी निष्कपट वाणी सुनकर मन्त्रदान के साथ-साथ उपदेश भी दिये जिससे उसके जीवन का आमूलचूल परिवर्तन हो गया । नरवाहन जैसे खूँखार डाकू के जीवन के इस परिवर्तन से पंचकोसी वृन्दावन में निवास करना सबके लिए सुगम हो गया । फलतः बृहद वृन्दावनस्थ ब्रज के नन्दग्राम, बरसाना, राधाकुंड और संकेत आदि ग्रामों में बसे हुए सन्तजन भी श्री हिताचार्य द्वारा प्रकटित इस पंचकोसी रासस्थल वृन्दावन में निवास करने लगे । इससे पूर्व सभी भक्तगण इस पंचकोसी वृन्दावन से अपरिचित ही थे । 
श्री हिताचार्य ने जिस स्थान से तीर फेंका था उसी स्थान पर लता विनिर्मित मन्दिर या पर्ण कुटी में श्री राधाबल्लभलाल जी को विराजमान कर दिया और अपने निवास के लिए किसी प्रकार का निवासालय बनाकर श्री राधाबल्लभलाल जी की अष्टयामी सेवा करने लगे । वे इस पर्ण विनिर्मित मन्दिर में उस समय तक सेवा करते रहे जब तक राजा नरवाहन द्वारा नवीन मन्दिर का निर्माण नहीं हुआ था । राजा नरवाहन ने श्री राधाबल्लभलाल जी का नवीन मन्दिर उसी स्थान पर बनवाया था, जहाँ पर श्री हिताचार्य सपरिवार निवास करते थे । नवीन मन्दिर निर्माण हो जाने पर वि. सं. 1591 की कार्तिक शु तेरस को श्री हिताचार्य ने श्री राधाबल्लभलाल जी को उसमें विराजमान किया और विशेष समारोह के साथ पाटोत्सव मनाया ।
अनेक संतगण गोकुल, गोवर्धन, नंदगाव और बरसाने में निवास करते थे । उस समय गोवर्धन, नंदगाव और बरसाना भी वृहद् वृन्दावन था । श्री हरिवंश जी ने यहाँ अनेक लीला स्थलियों को प्रकट किया और वृन्दावन की सीमा पंचकोसी निर्धारित की । उसी दिन आज भी वृन्दावन प्राकट्य उत्सव मनाया जाता है । 
 
श्री नरवाहन जी पर कृपा करना :
 
रहें भौगाँव नांव नरबाहन साधुसेवी, लूटि लई नाव, जाकी बन्दीखानै दियौ है ।
लौंड़ी आवै दैन कछू, खायवे को, आई दया, अति अकुलाई लै, उपाय यह कियौ है ॥
बोलौ राधवल्लभ औ, लेवौ हरिवंश नाम, पूछै शिष्य नाम कहौ, पूछी नाम लियौ है ।
दई मँगवाय वस्तु, राखियो दुराय बात, आय दास भयौ, कही रीझि पद दियौ है ॥
- श्री भक्तमाल (419)
 
श्री “नरवाहन” जी श्रीहरिवंशजी के शिष्य, परम संतसेवी, "भैगाँव” में रहते थे । ब्रज के एक जमींदार थे और लुटेरे भी । कोई सेठ लाखों की संपदा नाव में भरे यमुना जी के मार्ग से जा रहा था, नरवाहन ने संतसेवा के लिये सब लूटलिया, और उस सेठ को कारागार (बन्दीघर) में डाल दिया । उस वणिक (सेठ) को भोजन देने एक लौंड़ी (टहलनी) कारागार में जाती थी, सेठ की दुर्दशा देखकर उस टहलनी के हृदय में बड़ी दया आई, तब बहुत अकुलाके उसको एक उपाय बताया कि "तुम बड़े ऊँचे स्वर से "राधावल्लभ श्रीहरिवंश !” यह नाम जपो, जब पूछा जाय, तब कहना कि मैं श्रीहरिवंश जी का शिष्य हूँ ।” उस सेठ ने ऐसा ही किया और उच्च स्वर से "राधावल्लभ श्रीहरिवंश” नाम रटने लगा । जब श्रीनरवाहनजी ने यह सुना तो उस सेठ के पास गए और पूछा कि “तुम यह नाम क्यों जपते हो?” उस सेठ ने कहा “मैं श्रीहरिवंशजी का शिष्य हूँ।” राजा नरवाहन बड़े ही गुरु निष्ठ थे । सुनते ही उस सेठ को मुक्त कर दिया और धन देकर कहा कि "श्रीगुसाईंजी से यह बात नहीं कहना ।" वह सेठ शीघ्र ही श्रीवृन्दावन जाकर श्रीहित हरिवंशजी का शिष्य हो गया, और अपना वृत्तान्त भी सुनाया "नरवाहन जी ने लाखों का धन लेकर मुझे कारागार में डाल दिया सो मैंने आपका नाम लिया और झूठ ही कहा कि "आपका शिष् हूँ ।” यह सुनते ही नरवाहन जी ने मुझे मुक्त कर दिया और मेरा सम्पूर्ण धन देकर मुझे घर भेज दिया ।" सुनकर प्रसन्न हो श्री गुसाईंजी ने दोनों को प्रभुपद प्रेम प्रदान किया । श्रीनरवाहन जी की गुरुभक्ति पर रीझकर इन्हीं की छाप देकर श्री हरिवंश जी ने दो पद बनाकर अपनी "चौरासी" ग्रन्थ में रख लिया और श्री नरवाहन जी को नित्य विहार रस का साक्षात्कार करा दिया । 
 
नवीन सिद्धांत एवं स्वेष्ट-सेवा-संस्थापना :
श्री हिताचार्य के परमोपास्य षटैश्वर्य सम्पन्न भगवान नहीं थे; प्रत्युत कोटि ब्रह्म ऐश्वर्य के परकोटे के अन्तर्गत किन्तु उससे दूर पूर्ण माधुर्य मूर्ति, रस-रसिक, अद्वय युगल किशोर थे । भगवान की सेवा पूजा वैदिक विधान द्वारा ही संविधेय होती है किन्तु माधुर्य मूर्ति, 'प्रेम' किंवा 'रस' विग्रह श्री राधावल्लभलाल जी की सेवा प्रीति-विधान से ही सम्भव थी । अतः श्री हिताचार्य ने अपने स्नेह भाजन श्रीराधाबल्लभलाल जी का अहर्निशि समयानुरूप अनेक प्रकार से लाड़-दुलार प्यार किया । इस लाड़-प्यार को ही उन्होंने सात भोग और पाँच आरती वाली विधि निषेध शून्य 'अष्टयामी सेवा' तथा वर्ष में आने वाले ऋतु उत्सवों [वसन्त, होली, होरीडोल, जलबिहार, पावस, झूला और आदि) की 'उत्सविक सेवा' का सुरम्य रूप प्रदान किया । साथ ही अपने आचरणों एवं वाणी द्वारा दैनिक स्वेष्ट की मानसी सेवा करने का भी मूर्त विधान दिया । 
 
सिद्ध केलिस्थलों का प्राकट्य :
श्री हिताचार्य ने ऐसे वृन्दावन का प्रागट्य किया था जोकि भूतलस्थ होते हुए भी 'देवानामथ भक्त-मुक्त' और श्री कृष्ण के लीला परिकर के लिए भी दुर्लक्ष्य था । इसीलिए यह वृन्दावन परम रहस्य संज्ञक बना रहा और बना रहेगा । ऐसे वृन्दावन में होने वाली लीलायें और लीला स्थलों का प्रागट्य भी अनेक दृष्टियों से अनिवार्य था । अतः श्री हिताचार्य ने उन लीला स्थलों का भी प्रागट्य किया जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में नहीं है । इन लीला स्थलों का प्रागट्य ही पंचकोसी वृन्दावन का प्रागट्य है और जो रहस्य रूप वृन्दावन के परिचय प्रदाता तथा प्रत्यक्ष प्रतीक हैं । पंचकोसी वृन्दावन में उनके द्वारा प्रकटित लीला स्थल हैं-रासमण्डल, सेवाकुंज, वंशीवट, धीरसमीर, मानसरोवर, हिंडोल स्थल, शृंगारवट और वन विहार।
 
नमो जयति जमुना वृन्दावन ।
नमो निकुंज कुंज सेवा, हित मण्डल रास, डोल, आनंदघन ॥
नमो पुलिन वंशीवट, रसमय धीरसमीर, सुभग भुव खेलन ।
नमो-नमो जै मानसरोवर सुख उपजावन दंपति के मन ॥
नमो-नमो दुम बेली खग-मृग जे-जे प्रगट गोप्य श्री कानन ।
नमो जयति हित स्वामिनि राधा अलबेली अलबेलौ मोहन ॥
(श्री अलबेलीशरण जी)
 
नित्य रासलीलानुकरण प्रागट्य :
प्रेम किंवा रस मूर्ति श्यामा-श्याम प्रकृतितः रास और विलास प्रिय हैं । रास और विलास प्रियता इनके स्वरूप की प्रकट प्रतीक है । इसीलिए श्री हिताचार्य इन्हें आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि रास-विलास के साथ यह जोरी सदा विराजमान रहे -
 
नव निकुंज अभिराम श्याम सँग नीको बन्यो है समाज । 
जै श्री हित हरिवंश विलास रास जुत जोरी अविचल राजु ॥
 
राधाकिंकरीगण इस रास-रस का पान नेत्र- चक्षुओं द्वारा किया करती हैं । राधाकिंकरी भावानुभावितहृदय रसिकों को भी प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा इस रास-विलास का रसास्वाद निरन्तर मिल सके इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्री हिताचार्य ने प्रेम मूर्ति श्यामाश्याम की इस नित्य रासलीला के अनुकरण का प्रागट्य किया । यह रासलीलानुकरण वृंदावन में होने वाले उस नाद्यन्त नित्यरास का अनुकरण था जो मुक्तजनों, भक्तजनों और गोविन्द प्रिय परिकर से सर्वथा अलक्षित है । यह भागवत वर्णित द्वापरान्त में होने वाले महारास से भिन्न उस नित्यरास का अनुकरण था जिसे केवल राधा-प्रिय किंकरीगण ही देखा करती हैं । इस रासलीलानुकरण का शुभारंभ श्री हिताचार्य ने वि. से. 1592 के लगभग पंचकोसी वृन्दावनस्थ चैन घाट [वर्तमान नाम गोविन्द घाट) में विनिर्मित रास मण्डल पर ब्रजवासी बालकों को श्यामा-श्याम व सहचरियों के वेष से सुसज्जित करके किया था । 
इसी रासमण्डल में एक समय महारास के मध्य श्री राधा के चरणों की नूपुर टूट गयी थी और वहां उपस्थित श्री हरिराम व्यास जी ने अपने यज्ञोपवीत से नूपुर गूँथ कर श्री प्रिया जी के चरणों में धारण कराया था । 
 
शिष्य गण :
रसिकाचार्य गो. हित हरिवंश जी के अनेक शिष्य हुए, उनमें से भगवत मुदित जी द्वारा रचित 'रसिकअनन्यमाल' में वर्णित शिष्यों का नामोल्लेख किया जाता है 
 
इन उल्लिखित रसिकों में से श्री नरवाहन, हरिरामव्यास, छबीलेदास, नाहरमल, बीठलदास, मोहनदास, नवलदास, हरीदास तुलाधार, हरीदास जी [कर्मठी बाई के ताऊ], परमानन्ददास, प्रबोधानन्द सरस्वती, कर्मठी बाई, सेवक जी, खरगसेन, गंगा, जमुना, पूरनदास, किशोर, सन्तदास, मनोहर, खेम, बालकृष्ण, ज्ञानू, गोपालदास नागर, आदि । 
 
श्री हिताचार्य जू की रचनायें :
 
1: श्रीराधासुधानिधि 
यह एक संस्कृत काव्य है जिसकी श्लोक संख्या 270 है । इस ग्रन्थ में श्री राधाकृष्ण की विभिन्न निकुञ्ज लीलाओं का वर्णन है, संग में अभिलाषा एवं वंदना के श्लोक भी संगृहीत हैं ।  
 
2: श्री यमुनाष्टक
श्री यमुनाष्टक संस्कृत में रचित एक अष्टक है जिसकी श्लोक संख्या 9 है । इसमें श्री यमुना जी का यश एवं उनकी वंदना का वर्णन है । 
 
3: श्री हित चौरासी 
श्री हित चौरासी ब्रजभाषा में एक पद्य रचना है जिसमें 84 पद संकलित हैं । इस ग्रन्थ में श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला का वर्णन है । 
 
4: स्फुट वाणी 
इस ग्रन्थ में ब्रजभाषा में 24 पद संकलित हैं, जिसमें सिद्धांत, आरती, श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला, आदि के पद हैं ।
 
 
लीला संवरण :
जयकृष्ण जी ने श्री हिताचार्य का निकुंज गमन वर्णन करते हुए लिखा है कि -
श्री यमुना जी के तट पर मानसरोवर के निकट भांडीरवट है । कुसुमित ललित लतिकाओं से रमणीय इस वन स्थली में ‘भँवरनी भवन' नामक एक निभृत निकुंज है । इस निकुंज में श्यामा-श्याम रति रस बिहार किया करते हैं । शारदीय पूर्णिमा [आश्विन की पूर्णिमा] की चन्द्र-चन्द्रिका में रति रस बिहार के रसासव से आघूर्णित नयन श्री रसिक युगल झूम रहे थे, घूम रहे थे, उनकी श्री अंग की कान्ति चन्द्र-कान्ति को अत्यधिक कान्त बना रही थी । श्री हिताचार्य को प्रिया जी के अंग की सुगन्ध ने अपनी ओर बलात् आकर्षित किया । परिणामतः वे उस सुगन्ध के आधार से "प्रिया जी ! आप कहाँ हो ? कहाँ हो ?" यह कहते हुए उस वन में घुसते ही चले गये और थोड़ी देर में प्रिया जी की अंग-चन्द्रिका में घुल मिल गये । इस प्रकार से वि. सं. 1609 की आश्विन पूर्णिमा की रात्रि में श्री हित जी लोक-दृष्टि से ओझल हो गये । 
 
दिव्य कमल श्री यमुना कूल । वट भांडीर निकट रस मूल ॥
संतत जहँ भँवरन की भीर । शीतल-मन्द-सुगंध समीर ॥
जहँ बिहरत श्री रवनी-रवन । ताकौ नाम भँवरनी भवन ॥
शरद मास राका उजियारी। पूरन शशि जु प्रकाशित भारी ॥
प्रिया-जौन्ह में यौं मिलि गई । तिहि छिन सहचरि संभ्रम भई ॥
कहत कि कहाँ-कहाँ हो लली । सौंधे के डोरे लगि चली ॥
दृष्टान्तर यौं श्री हरिवंश । मानसरोवर रस के हंस ॥
भँवर भँवरनी में दोउ चलैं । श्री हित जू तिन सँग ही रलैं ॥
सम्वत सोरह सै रु नव, आश्विन पूनौ मास ।
ता दिन श्री हित जग-दृगन, कियौ अप्रगट विलास ॥
 
श्री हरिराम व्यास जी ने हिताचार्य के निकुंज गमन कर जाने के फलस्वरूप वृन्दावन के रसिक समाज की दुर्दशा और
अपनी हार्दिक वेदना का वर्णन किया है -
 
हुतौ रस रसिकन कौ आधार ।
बिनु हरिवंशहि सरस रीति कौ कापै चलिहै भार ॥
को राधा दुलरावै गावै वचन सुनावै चार ।
वृन्दावन की सहज माधुरी कहिहै कौन उदार ॥
पद रचना अब कापै ह्वै है निरस भयौ संसार ।
बड़ौ अभाग अनन्य सभा कौ उठिगौ ठाठ सिंगार ॥
जिन बिनु दिन छिन सत युग बीतत सहज रूप आगार ।
'व्यास' एक कुल कुमुद बन्धु बिनु उड़गन जूठौ थार ॥
Avatar

Avatar

Avatar

Avatar

Avatar
पद हित हरिवंश 17/09/2023

Avatar

Avatar

Avatar

Avatar
पद हित हरिवंश 17/09/2023

Avatar